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________________ मा० ० टीका एवं हिन्दी विवेधन ] नामे मानना उचित है। क्योंकि संकेत विशेष से भाषाविषयक संदेश को प्रण करने से भावनिःक्षेप में नाकर्य का परिहार भी हो सकता है। और इस संकेतविशेष को स्थापनावृत्त मानने से स्थापना का मनिःक्षेप में अन्तर्भाव भी नहीं हो सकता" - किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि संग्रह जब वस्तु writer करता है तो उसको दृष्टि से नामेन्द्र के उक्त निर्वाचन में नामस्थापना उभयसाधारण harशेष का ग्रहण कर स्थापना हो तामनिःक्षेय में संगृहीत कर देना ही उचित है। · अत्र वदन्ति अनुपपयमेतद् मतम्, उपचाररूपसंकेत विशेष ग्रहे द्रव्यनिःक्षेपस्याप्यन विरेकप्रसङ्गात् यदच्छिकविशेषोपग्रहस्य चामामाणिकत्वात् पित्रादिकृतसंकेतविषयस्य प्रहणाद् नाम-स्थापनयोरैक्यायोगात् । एवं च बहुपु नामादिषु प्रतिस्विकरूपाभिसंधिरेव संग्रह - व्यापार इति प्रतिपत्तव्यम् । यच्छयैव संप्रइव्यापारोपगमे तु नाम्नोऽपि भावकारणतया कुतो न द्रव्यान्तर्भाव इति वाच्यम् १ 'द्रम्मं परिणामिया आवसंषद्धम्, नाम तु वाच्यवाचकमा केनेत्यस्ति विशेष' इति येत् ? तहिं स्थापनाया अपि तुन्यपरिणामतया भावसंबद्धस्यात् किं न नाम्नो विशेषः उपधेयसकर्येऽप्युपाध्यांर्यात् विभाजकान्तरोप स्थित निःशेषान्तरस्येष्टत्वात् " जत्थ जं जाणिज्जा लिक्खेवं णिक्खिवे शिरवसेसं " इति [ अनुयोगद्वार यू. ७ ] सूत्रप्रामाण्यादिति पर्यालोचनीयम् । } १०५ " [ नाम का स्थापना में अन्तभाव अनुचित उत्तरपक्ष ] इस पक्ष के प्रतिवाद में व्यापाकार मे मध्य विद्वानों के प्रतिवावरूप में यह कहा है कि उक्त मत असङ्गत है क्योंकि यदि नाम निःक्षेप की उक्त परिभाषा में नाम स्थापना उभयसाधारण संकेतविशेष का उपादान कर स्थापना का नाम में अन्तर्भाषि किया जायगा तो उस परिभाषा में उपचाररूप संकेत विशेष का ग्रहण कर द्रव्यनिक्षेप का भी नामनिःक्षेप में प्रन्तर्भाव प्रसक्त हो सकता है। क्योंकि में भी नाम का औपचारिक स्वेालक संकेत सम्भव है। [ पिता आदि का किया हुआ नाम ही नामनिःशेष है ] इसके अतिरिes दूसरी बात यह है कि मामभिःक्षेप को उक्त परिभाषा में नुसार किसी संकेत विशेष को ग्रहण करने में कोई प्रमाण न होने से पिता गुरु भनि द्वारा किये हुये संकेत के विषय कोही नामनिःक्षेपरूप में ग्रहण करना उचित है। अतः नाम और स्थापना में वय असङ्गत है । अतः विभिन्न नामों का तताभावि में अनुगत प्रतिस्विक एक रूप में अभिप्रायर्णन को ही संग्रह नय का कार्य मानना उचित है। जेसे जीव- अधीकादि तयोधक नामों का प्रत्येक सामार्थ में अनुगतशरदय में सापवर्णन करने से जोब अनोवावि तत्वों का सद् रूप से ऐक्य स्वीकृत होता है। यदि अपनी स्वतंत्र इछानुसार संग्रह का कार्य माना जायगा तो नामानुसन्धानपूर्वक ही वस्तु की रचना होने से नाम भी भाव का कारण होने से नाम निःक्षेप का भी निशेष में अन्तर्मान क्यों न हो सकेगा ? क्योंकि भाप के कारण को कहा जाता है। * यत्र च यज्जानीयात् निक्षेपं निक्षिपेत् निरवशेषम् [ अनुमोगद्वार सूत्र ७ - पूर्वार्द्धम् ]
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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