________________
१०६
[स्त० ७ ० १७
[ भाव के साथ नाम और स्थापना का सम्बन्ध भिन्न भिन्न है ]
इसके उत्तर में यमिह कहा जाय कि “परिणामी होने से जो भाव होता है अर्थात् जो भा का परिणामी कारण होता है यहाँ द्रव्य होता है किन्तु नाम को भावसंबद्ध होता है वह परिणामी होने से नहीं होता अपितु वाच्यवाचक साथ द्वारा भायसम्बद्ध होता है। अतः इस लय के का
निक्षेप में नाम निःक्षय का अन्तर्भाव नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस से fare करने पर स्थापना को भी नाम से पृथक मानना ही उचित होगा क्योंकि वह भी तुल्यपरि नामरूप से भाव मानी स्थानीय अर्थ से सम्बद्ध होती है । विन्तु नायवत् याच्या वाचकभाव द्वारा सम्पद नहीं होती है क्योंकि नाम और नाम संकेत विशेष विषय अन्य स्वरूप उपाधि से नाम और स्थापना उपयों में ऐक्म होने पर भी वाक्य याक भाव द्वारा भाषसम्बद्धष और तुल्यपरिणामरूप से भायसम्बद्ध रूप नाम स्थापना की उपाधियों में ऐक्य नहीं है । अतः उपाधि के भेव से उपधयों में भेव अपरिहार्य है। जैसे स्थापना में नामगत निविभजनमें से भिन्न निक्षरविनत्जक धर्म द्वारा स्थापनाको नाम निक्षेप से भिन्न निक्षेम माना जाता है, उसीप्रकार उक्त चार निःक्षेषों में विद्यमान निक्षेपविभाजक धर्मो से अतिरिक्त यदि कोई निक्षेपविभाजक धर्म उपस्थित हो तो उन चारों से भिन्न निक्षेप भो मान्य है। जैसा कि 'जरथ या अनुयोगद्वारसूत्र से प्रमाण सिद्ध है। यह सूत्र स्पष्टरूप से इस तथ्य का प्रतिपादन करता है कि जिस बन्तु में जा जो निक्षेप ज्ञात हो उन सभी से उसका निरूपण करना चाहिये। इस प्रकार सूत्र में शिक्षण के लिये सामान्यरूप से 'य' पर और निरवशेष का प्रयोग होने से नामावि निक्षेप की सत्ता में
वियोगों से
स्यादेतत्
सूत्रकार का तात्पर्य व्यरूप से प्रतीत होता है । प्रदेशी नगमात् पञ्चान स्वीकारत यात्रापि चतुः निक्षेपस्त्रीतु स्वतस्वीरे संग्रहस्य विशेष युक्त इति । मैचम्, देशप्रदेशयत् स्थापनाया उपविभागाभावेन संग्रहाविशेषण, अन्यथा यथाक्रमतिशुद्रा एवंभूतस्य निःक्षेपशून्य
I
प्रसन्नादिति न किञ्चिदेतत् । एतेन व्यवहारोऽपि स्थापना नेच्छति' इति केचित् भ निरस्तम, नीन्द्रप्रतिमा नेन्द्रद्वारा भत्रति न वा भवषिभ्रान्त एव न चा नाम:दिप्रतिपक्षय्यमगिरि इत्यर्धजरतीयमेतद्यद्भुत-लोक पर हारानुरोधिम् स्थापना
गन्तृत्वं चेति ।
1
[ प्रदेश
निक्षेत्र के स्वीकार से संत्र की विशेषतायुक्त ]
वि यह कहा जय कि जैसे गमनय जीव-धर्म- यमं आकाश पुन और उनके बेश इन ग्रह का प्रवेश स्वीकार करता है किन्तु सप्रहृमय उनके देशों को छोड़कर उन पांचों का ही प्रदेश स्वीकार करता है- प्रकार प्रदेश के सम्बन्ध में नगम से संग्रह का क्षय होता है, उसी प्रकार निव के सम्बन्ध मे भी नंगम और संग्रह में इस प्रकार का क्षय मानना उचित है कि जंगम की दृष्टि में नाम स्थापना भवि चारों निशेष है और संग्रह की दृष्टि में स्थापना का नाम में अन्तर्भाव हो जाने से नाम, प्रष्य और भाव में तीन हो निःशेप तो यह कथन क नहीं है क्योंकि देश और प्रदेश में औपचारिक भेव होता है। अतः देश की प्रदेश से पृ गणना में करके जीवादि पाँच को