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स्वा००टीका एवं हिन्वी विवेचन ]
ही प्रवेधावान् बसाना सहपा के लिये उपयुक्त हो सकता है। किन्तु लाम और स्थापना में औपः।
रिक मेव न होकर वास्तविक भेद होता है। अत: FATTATRI नाम में अत्तविकाके तीन-कीनिःोप बसाना उचित नहीं हो सकता । इस प्रकार प्रवेश के सम्बन्ध में और निक्षेप के सम्मान में संग्रहमय में समान बलक्षम्य आवश्यक है। पौद ऐसा न माना जापगा तो कम से मिशेषों की विशुदि होने से एवाभूतनय निशेष गुण्य हो जापया, मर्याद जैसे संग्रहमय से स्थापना का नाम में अन्तर्भाव हो गया । उसी प्रकार उत्करोति से नाम भावमा कारण होने से नाम का प्रष्य में अन्तर्भाव हो जापगा। इस प्रकार द्वस्याधिक नम कोटि में द्रव्य और भाव वो ही शेव रहे। पौर ऋणसूत्रादि पर्यापाधि नयों से द्रव्यानिकीप का त्याग होने से भावनिक्षेप हो बस जाता है। इस प्रकार सरोतर नयों को संकोच कारक मानमे पर एवम्भूतमय में भावनि छोप का भी परिश्यागत हो सकता है । अतः प्रदेश के समय में मंगम से संग्रह के लक्षण्मा को मान्स बनाकर निकोप के सम्बन्ध में भी नैगम से संग्रह के लक्षण्य की कल्पना नियुकिक होसे से किश्वस्कर है।
इस संदर्भ में कुछ विद्वान मह मा व्यक्त करते हैं कि "व्यवहारनय की दृष्टि में भी स्थापना मिशेष का नामनि:शेप से पृषक अस्तित्व नहीं है" किन्तुं यह मत भी निरस्तप्राय है क्योंकि ऐसा नहीं है कि इग्न की प्रतिमा में इन्द्रपद का व्यवहार न होता हो। अथवा वह व्यवहार होता हुमा भी भ्रममूलक हो, किंवा प्रतिमा में पत्रव्यवहार के विरोधी मामेवादि व्यवहार का सोकर्य हो । इसलिये स्थापना में लौकिक इन्व्यवहार को मानमा मोर स्थापनेश्वश्व का स्वोकार न करना अर्थभारतीय जैसा हो जाता है।
'जुत्रो द्रव्यमपि नापति, अत एवाधास्त्रयो नया द्रष्याथिकभेदाः, अग्रिमाध सत्तारः पर्यायाथिक मेदाः' इति वादी सिद्धसेनः । अस्मिमभ्युपगमे उन्जुसुअस्स एगे अणुवउसे एर्ग दवावस्मयं पृचं णेच्छह" इति [अनुयोगद्वार स.१४] विरोधः स्यादिति सिखानवृशाः । 'अतीतानागतपरकीय भेदपृथक्त्वपरित्यागाद जुसूत्रेण स्वकार्यसाधकल्वेन स्वकीयवर्तमानवस्तुन एबोपगमाद् नास्य तुल्यांशध्रुवांशलक्षणद्रव्याभ्युपगमः । अत एव नास्याऽसम्धटितन-माविपर्यायकारणतस्पद्न्यन्नाभ्युपगमोऽपि, उक्तसूत्रं स्वनुपयोगाशमादाय बतंपानापश्यकपर्याय दूग्धपदोपचारात समाधयम् , पर्यायार्थिफेन मुख्यद्रष्यपदार्थस्यैव प्रतिक्षेपात् । अवैषधर्मापाराशद्रव्यमपि नास्प विषयः, शध्दनयेनतिप्रसङ्गात्' इति केचन सिइसेनमतानुसारिणः । 'नैतत् कमनीयम् , नामादिवदनुपचरितद्रव्यनिःक्षेपदर्शनपरत्वादुक्यवस्य । न
देवम् , शब्दादिध्यपि कश्चिदुपचाप द्रव्यनिःक्षेपप्रसङ्गात् । पृयपत्वनिषेधेऽपृथक्रयेन द्रव्यविधेररावश्यकत्वात, एकविशेषनिषेधस्थ तदितर विशेष विधिपर्यवसायित्वाव' इत्यादिस्तु जिनभद्रमुखारबिन्दमिर्गवचनमकरन्दसंदर्मोपजीविना बनिः ।
[ऋजुत्रनय में द्रव्य का अस्वीकार-सिद्धसेनमरिमत ] पादी सिद्धसेनसरि का कहना है कि जनभनय प्रस्य का भी अपुपगम नहीं करता । इसी* ऋजुत्रस्यकोऽनुपयुक्त एक द्रध्यावश्यक पृथक्य नेच्छप्ति ।