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[सावा स्त० ७ श्लो० १७
लिये केवल नेगम संग्रह-व्यवहार ये सीन ही प्रत्यधिक नम हैं, क्योंकि इन्हीं तीन को द्रव्य माध्य है। अमिन शब्य समभिह तथा एवम्भूत पर्याय तय है क्योंकि उन्हें मु से पर्याय ही मान्य है ।
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व्याख्याकार का कहना है कि- घुस अभ्यगम में अनुयोगद्वार' आपम के 'उज्जुमुअस्स एगे अणुवते गं बावस्तयं, हुतं छ' इस सूत्र का विरोध होता है क्योंकि इस सूत्र में यह बताया गया है कि सभी समतिमनस्क सामायिकाहि प्रावश्यक ऋजुसूत्र को दृष्टि में एक यर
पक रूप हैं उसे उन में नानाश्व अभिमत नहीं है। अतः सिद्धान्त के विशेषज्ञद्वानों को बावी सिद्ध सेन का उक्त कथन रचिकर नहीं है। किन्तु सिद्धसेन के कलिम अनुयायी विद्वानों यह कह कर सिद्ध सेनसूरि को उक्ति का समर्थन करते हैं कि ऋजुसूत्र प्रतीत अनागत. परकीयमेव और पृथवश्व का परित्याग कर वर्तमान वस्तु का ही अभ्पुरगम करता है, क्योंकि यही अपने कार्य को सायक होती है। जब उसे उसमें सुयश और अशा का अभ्युपगम ही नहीं, तब सभय लक्षण द्रव्य का भी अम्युपगम नहीं रहा अर्थात् वह ऋजुसून मध्य के 'तुल्या' यानी सहमापरिणामस्वरूप कि सामान्य को और पूर्वापर भग्वापस्थास कोश- कुगुरु-पिण्ड - कपाल-घटादि बिसा परिणामों में 'श' यानी अनुगामी व्यरूप उता सामान्य को नहीं स्वीकार करता। इसी लिए "नूत भाविप कारकत्वं द्रव्यत्वभू इस प्रस्थ के लक्षण में घटक भूत-भाव-पर्याय व वर्तमान में है हो नहीं सत् है, बलि 'मूलादिपर्याय (अर्थात् मृताऽभवतरूपविनाश पर्याय और अनूभवनरूप उत्पादात्मक पर्याय) के कारस्वरूप प्रयत्व' का भी अभ्युपगम नहीं हो सकता। तात्पर्य यह है कि उसकी दृष्टि में जैसे तु और क्षरण स्थायितथ्य का अस्तित्व नहीं है, उसी प्रकार उत्पादविनाशाली अधिकद्रव्य का भी अवगम नहीं है। किन्तु उसकी दृष्टि में पर्यायों का हो उत्पादिनाश अभिमत है। इस मत के
सारं अपतनक अन्यमनस्क सामायिकादि आवश्यक में ऋसूत्र को दृष्टि से एक प्रयावश्य रूपता के प्रतिपश्वक उक्त सूत्र में अनुपयोग अंशरूप द्रव्यसाय को लेकर वत्तमान आवश्यक पर्याय में aurus का wife प्रयोग है। अत: 'ऋजुसूत्र की दृष्टि में दध्य का अभ्युपगम नहीं हैं इस कथन में उक्त सूत्र का विशेष नहीं है क्योंकि पर्याधिक तय को मुख्य ध्यपदार्थ ही अस्वीकार्य है, avarfretou का अभ्युपगम तो वह भी करता है यतः पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र नय में प्रत्यवार्थ के अभ्युपगम से सिद्धान्त का विरोध नहीं हो सकता ।
अमों के आधारभूत रूप को ऋजुसूत्र का विषय मानकर सन में थ्य के अभ्युपगम के सात्पर्य में उक्तसूत्र को सार्थकता का उपपादन नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने पर अन्य शब्दों में भी कथित प्रकार के द्रव्य को विषय मान कर व्रम्य । म्युपगम का प्रतिप्रसङ्ग हो सकता है।
[[सिद्धमित रमणीय नहीं है- क्षमाश्रमणमतानुयायिय ]
जिनवरिंग क्षमाश्रमसा के सुप्णारविन्द से निकले चनो मकरन्द पर निर्भर रहनेवाले विद्वानों के मतानुसार, नामावि के समान अनुपचरित वयनिःक्षेप को सूत्र का विषय बताने में ही फक्त सूत्र का तात्पर्य होने के कारण सिद्धसेनमतानुयायियों का उक्त कथन समीकीन नहीं है। क्योंकि परि अनुपश्चरित वयनिःक्षेप को ऋसूत्र का विषय बताने में उक्त सूत्र का तात्पर्य न माना जायगा