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[ शास्त्रबार्ता० स०७ लो०१७
नामस्थापनयोर्मेद' इति पेन् । कथं तहि गोपालदारके नामेन्द्रत्वम् ? । अथ 'नामेन्द्रत्वं द्विविधम-इन्द्र' इति पदत्वमेक्रम , अपरं चेन्द्रपदसंकेतविषयत्यम् । आधं नाम्नि, द्वितीयं च पदार्थ इति न दोप इति' घेत ! हि व्यक्त्याकृतिजातीना पदाधल्वेनेन्द्रस्थापनाया अपीन्द्रपदसंकेतविषयत्वात् कथं न गोपालदारफया नामेन्द्रन्यम् ।। 'नामभावनिक्षेपसांकर्यपरिहारावेन्द्रपदसंकेतविशेषविपयत्यमेव नामेन्द्रत्वं निरूल्यत' इति चेत ? हन्त सहि सोऽयं विशेपो नाम-स्थापनासाधारण एवं संगृह्यतामित्येतनिष्कर्षः ।
[मंहनय में, नामनिक्षेप में स्थापना का अन्तर्भाव-पूर्व पक्ष ] कतिपय विद्वानों का मत है फि-स्थापनानिःक्षेप संग्रहनस को प्रभीष्ट नहीं है । बयोंकि वह मय संग्रहण-संओपोकरण में, कुशल होता है। अत एव उसके अनुसार स्थापना मिःक्षेप नामनिःक्षच में ही संग्रहीत हो जाता है। यषि महांका की जाय कि-"श्री अनुयोगहार शून में कहा गया है किनामनिःक्षेप वायत्कथिक होता है-मर्थात यायववस्तुमासी होता है, और स्थापना स्वरी-अस्थिर प्रयावद्धस्तुभाषी तथा यावत्कषिक-यावधस्तुभाची. ऐसे दो प्रकार की होती है। इस प्रकार अनुयोगबार पत्र में माम और स्थापना निःक्षेप में भेव का प्रतिपावन होने से पोनों में एकरूपता कैसे हो सकती।" को पह गंभ! मि नहीं है, लोडि ग के याबस्तुभाची नहीं होता, जैसे पाचक, याचक आदि नाम पाचक याचक पुरषों के अस्तित्व तक उन में प्रयुक्त नहीं होते प्रपितु पाचन-याचन मा क्रियाओं के अस्लिरव तक ही प्रयुक्त होते हैं। अतः मामनिःक्षेप में वस्तु को कालिकध्यापकता नहीं है। अत: नामनि:शाप में मी यात्राकथिकस्वरूप से स्थापनामिक्षेप का साम्प होने से अनुयोगहार का तात्पर्य हम दोनों के पलभेदमात्र के प्रतिपादन में ही मान्य हो सकता है । अत एवं सूक्ष्मदष्टि से स्थापना निक्षेप का नामनिक्षप में अन्तर्भाव बताना असङ्गत नहीं है।
[ नाम निक्षेप की व्याख्या से स्थापना का किसी तरह बधिर्भार नहीं है ]
यदि यह कहा जाय-'पाप और प्रतिकृतिश्प होने से नाम और स्थापना में भेद र पष्ट है अतः स्थापना को नाम में अन्तर्भूत करना उचित नहीं हो सकता'-किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि नाम को पवारमक बताकर स्थापना से उसका पार्थक्य बताना युक्तिसङ्गल नहीं है क्योंकि काम पषि पवात्मक होगा तो प्रामकरण के प्राधार पर गोपालवालक नामेन्द्र कैसे हो सकेगा? क्योंकि वह इन्द्रनाम का वाच्य है न कि अन्नपवस्वरूप है। यदि इसके उत्तर में यह कहा जाय कि 'नामेन्द्र के हो प्रकार हैं एक 'x' पदस्प और दूसरा पसंकेतविषयप। इनमें पहला नामेन्द्र नामस्वरूप होता है और द्वितीय पवार्यस्थप होता है। प्रतः गोपालशलक द्वितीय नामेन्द्ररूप होने में कोई बाखा न होने से उक्त दोष नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि व्यक्ति (प्रय । आकृति -साकार (स्थापना) और जाति ये तीनों, पब के अर्थ (चाफम) होने से इन्द्र स्थापना भी इन्द्रपन के संकेत का विषय होगी। अत एव गोपालपालक के समान की स्थापना में भी नामेन्द्रत्व को आपत्ति होगी। इसके प्रतिकार में यदि यह कहा जाय कि-'सामान्मतः इन्पवसंकेस विषय को नामेन्द्र नहीं कहा जा सकता क्यों क ऐसा कहने पर भावेन में इन्परसंकेतविषयव होने से नार्मान.क्षेप पौर भावनि:क्षप का सोकर्य हो जायगा। अतः भायान्य में इनपद संकेतविशेष के विषय को ही