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________________ स्मा.कोका एवं हिन्दी विवेचन] मपि द्वारा उनके गुणपर्यायशुन्य अवस्था की कल्पनाही अशक्य है। क्योंकि किसी भी अर्चको कोई भी परिणति किसी के यायिक यानी आहार्यशान के अनुसार नहीं होती। [द्रव्यजीर की कल्पना अयुक्त ] कुछ लोगों का यह भी कहना है कि-'वर्तमान में जीवशक्षा के कान में अपरिणतजीव उसरकाल में जीवशम्मामशान में परिणत होने वाले जोव का कारण होने से द्रव्यजीव है । अथवा जीवशवबामाता का जीवरहित अर्थात जीवशनार्थमान में परिणत प्रात्मा से रहिस शरीर भाषिकाल में जीव शम्वार्थवान में परिणत होने वाले आरमारूप भापका कारण होने से ब्रम्पजीव है । अतः सध्यजीव की प्रसिमि बताकर अभिलाप्प समस्तवस्तुओं में नामाविनिक्षेप के चतुष्टय को पारित का अभाव बताना उचित नहीं है।"-किम्मु यह भी ठीक नहीं है पोंकि लीबाबाजान में परिणत पारमा ही जीव नहीं होता किन्तु सामान्यतः नाममात्र परिणत आत्माजीक होता है और आपका किसी न किसी काम में परिणत होला सर्वकालिक है अत: उत्तरीति से वरुपजीव को कल्पमा प्रयुक्त है। भाष च पगिर्भिकाल माननिय मामिला मार्मिकस्य तु चत्वारोऽपीति । यदाह भगवान् जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणः [वि. आ.भा. २८४७] 'भाचं चिप सहणया सेसा इच्छति सम्वणिक्रयेवे" इति । अत एव घरणगुणस्थितस्य साघोः सोनमविशुद्धत्वे सर्वनयाना भाषाहित्य हेतुतयोझावितम् । अत एव नैगम-संधा-व्यवहार-जुत्राणामपि चत्यागे निक्षेपाः, तेषा द्रव्यार्थिकमेदत्वात् । शब्द-समभिरूटे-भूतानां तु भावनिक्षेप एघ, पीयार्थिक भेदत्यादेषाम् । [ द्रव्यार्थिक-पर्यापार्थिक के अभिमत निक्षेप ] उक्त निःक्षेपों में पर्यायायिक मय को केवल मावनिःपकी माम्य है किन्तु ग्याषिक को चारों निक्षप मान्य है जैसा कि जिनभावण अमाश्रमण मे [विशेषा २-४७ में कहा है कि गाम्य नयों को केवल भावनिक्षेप ही इष्ट है और अन्य नयों को सभी निक्षेप हुएट हैं। इसीलिये चारित्रगुण में प्रचाचित साधु में सर्वनविशुद्धता को सिद्धि में सर्वनों के भाववाहिरव का हेतुरुप से उद्धापन किया गया है। पर्यायाधिको भावनिक्षेप और प्रग्याधिक को नामादि चारों निक्षेप अभिमत होने से ही नंगम संग्रह-यवहार और ऋजुसूत्र को भी चारों निक्षेप अभिमत होते हैं क्योंकि ये रारों ध्याथिक श्रेणि के मय हैं एवं पर्यायाधिक श्रणि केनय होने से शरद समिक और एवं सूत को भावनिक्षेप ही अभिमत होता है। "संग्रहः स्थापना नेच्छति' इत्येके, संग्रहप्रयोनानेन नामनिश्शेष पत्र स्थापनाया उप. संग्रहात । न बणाम आत्रकाहिय हाज्जा, ठाणा इत्तरिया पा होज्जा, आक्काहा पा होजा" इति सूत्र एव तयोनिशेषाभिधानाव कथमकरूपम् इत्याशनीयम् , पाचक-याचकादिनाम्नामध्ययावत्कयिकत्यात नदध्यापकत्वात् स्चूलभेदमात्रकथनात् । पदप्रतिकृतिभ्यां १. भावमेव पन्दनया; पोत इच्छन्ति मनियात् । २. नाम यावस्कथितं भवेत् . स्थापनेवरी वा मवेत यावधिका वा भवेत् ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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