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________________ १४६ [गारवा .. लो२२ भविषवस्थित नीलपीताद्यात्मक विशिष्टरूपों को उपलब्धि होने पर पवित्रम सप्रकार वित्रत्मप्रकारक कल्पनावृति होती है और यह बसिनोल-पीतादिरूपों से विलक्षणहप की प्राहक प्रतीत होती है, किन्तु स्तुगत्या सस वृद्धि में चित्रत्व के अधिकानप किसी विलक्षणहप का मानम होकर मोलपीलाविरूपसमूह काही मान होता है। अतः वह बस विषय के आश्रयभूत किसी वस्तु को विषय न करने से असविषयक होती है और उस दिसे मित्रत्व के अधिष्ठामरूप में किसी अन्य पदार्थ की सिखिमही होती, ठीक उसीप्रकार इदमण-महब' इन प्रतीति में भी अणुस्व-महरख के अधिष्ठामरूप में रूपावि का मान मानकर अणुस्व-महस्वादि के अधिष्ठानरूप में परिमाणसामाण्य की सिद्धि का निराकरण हो सकता है। बोड इस का समर्थन करते हुए कहता है कि यह मुक्तिसङ्गत भी है क्योकि प्रासाद और मालावि अतिरिक्त अवयवोद्रव्यरूप न होने से उनमें परपरिकल्पित मर्याद न्यायशेषिकको अभिमत महस परिमाण का प्रभाव होने पर भी काल्पनिक महत्परिमाण को लेकर 'महान् प्रासाद' 'महतो माला' इसप्रकार की प्रतीति का प्रादुर्भाव अमुभवसिद्ध है। यवि यह कहा जाए कि 'प्रासादाधि में महत प्रत्यय प्रौपचारिक घाभी धानत है तो यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह प्रत्यय अस्सलसिक है अर्थात अबाधित अभ्रान्स है। जैसा कि प्रमापाबात्तिक में धर्मकीसि में कहा है-मालावि में अवापिकादिको जो औपचारिक महत्व इष्ट है-वह उचित नहीं है क्योंकि घटादि में सो मुख्य महवाकार ज्ञान होता है, प्रासाद में होनेवाला महाकार शान उससे अविलक्षण है । अलः प्रासबाधि में महदाकारमानो औपचारिक नहीं माना जा सकता। श्रम व्याख्याकार कहते हैं कि प्रतिरिक्त अवययो और उसमें अतिरिक्त महस्थ का उपरोक्त कथन द्वारा निरास करीवाले बौखों का प्रतिक्षेप नैयायिकाधि से कैसे हो सकेगा? इसलिये व्याख्याकार ता कलमा है कि-'स्वलक्षण एकवस्तु को विभिनपुरुषों को होनेवाली विभिन्न कल्पनात्मकवृद्धि के हेतुभूत सममन्तर जान का सहकारी मानने पर स्वभाव मेद का प्रसङ्ग होगा, क्योकि एक स्यभाव से सहकारी मामने पर मिल भिन्न पुरुषों को मिन्न मित्र कल्पनात्मकशि न हो सकेगी-इसप्रकार अनेकारतवायी की ओर से तो स्वभाव मेव का पापादन कर मौजूमत का प्रत्यख्यान किया जाना पुक्तियुक्त हैं. किन्तु नायिक, जो कि वचनमात्र से एकान्तरूप में एकवानु को एकस्वभाव से अनेक कापों का जनम मानते है वे बौद्ध को परस्त नहीं कर सकते क्योंकि उनके मन में से एक वस्तु में एकत्यभाष से अनेक कार्य को जनकसा होती है उसीप्रकार मौसमत में भी एक स्वभाव से स्वलक्षण एक वस्तु को विमिनपुरुषाय धिभिता कल्पनाम के हेतुगत विभिन्न समनतर जाम की सहकारिता हो सकती है। एतेन मीमांसकानुमारिणोऽपि निरस्ताः, घटादियन त्रुटीनो दृश्यमानानां इत्र्यपयांयत्वेन वृक्षमतदुपादानावस्यकत्यात, अन्यथा घटादीनामयुत्पादाधनुभवापलापन संग्रहनयाश्रयणप्रसात् । इदमेवाशयनः प्राह-न च सत-परासश्चम् तत्रः-स्वस्मिन् स्वमन्वाइसच्चवा नास्त्येव, न्याया विचार्यमाणम् । स्वसभ्यं हि स्वसुधाऽसत्चविरोधीति तत्र न न स्यात् । परासरप
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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