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________________ स्थ.. का एक हिन्दी विवेचन ] १४५ रूप मावि से भिन्न है मयोंकि रूपाविविषयक प्रतीति से विलक्षण मुधिरा पाहा है। जो एवम्भूत होता है वह रूपावि से भिन्न होता है जैसे सुसावि स अनुमान में यह प्राशंका नहीं की जा सकतो कि महवाविपरिमाण सिद्ध न होने से पह भनुमान माधयातिक्षिपस्त है क्योंकि महाविपरिमाण 'महकाविपरिमाण'शग्वापरयरूप से पक्ष है।जो प्रतिरितपरिमाण का अपलाप करना चाहते हैं उनके मन में भी महवादिपरिमाणम का कुछ न कुछ प्रर्थ अवश्य है। अतः महाविपरिमाण. यापय उनके मत में भी सिद्ध है। ऐसा कहने पर इस दोष का मो उद्धावनमत किया जा सकता कि अतिरिक्तपरिमाग के प्रपलप कला के मत में महताविपरिमाप्त वाम्बार्य में रूपाविमिन्नत्व जाति है क्योंकि महाविपरिमाणशम्वार्थत्वाधावेम रूपाविभिन्नःव साध्य है। इस अनुमान में यह शंका मी महा की जा सकती कि महाविपरिमाण में से रूपाविमिन्नत्व सापनीय है उसीप्रकार सुखावि भिन्नत्व भी साधनीय है अतः सुखादि का दृष्टान्तरूप से उपन्यास प्रसइन्त है, क्योंकि मुनारि बान्त्रिपवेन मही है और 'महाविपरिमाण' शब से श्यवाहत होनेवाला असं वायोग्यवेध है अत: महाविपरिमाण में सुखाविका मेव उन विद्वानों के मत में भी सिख है भो परिमाण का माझेवियवेध किसी सर्ष में अन्तर्भाव कर उसका अपलाप करना चाहते हैं। सप्तएष सुखादि का दृष्टान्तरूप से उपन्यास युक्त है।" [नैयायिक के अनुमान में हेतु में स्वरूपासिद्धि दोष ] मंदायिक केस अनुमान में बौद्ध की मार से ज्याल्पाकार ने मालयातिदि-बाप-दृष्टान्तासिसि भादि दोषों की उपेक्षा कर हेतु के सम्बन्ध में सम्मावित दोषों के माधार पर हो इस अनुमान के निराकरण का मार्ग अपनाया है । बसे, जर का कहना है कि यदि उक्त हेतु 'रूपारियिषयकेन्द्रियजम्प बुद्धि से विलक्षण प्रत्यक्षात्मक वृद्धि द्वारा ग्राह्य रूप होगा तो पक्ष में हेतु के न होने से स्वरूप प्रसिद्धि होगी, क्योंकिपाधि महाविपरिमाण साथी प्रत्यक्ष पाराध्यवस्थित भल: रूपादि का त्यागकर महवाधिपरिमाग का प्रस्थल भसिस है । इसलिये उसको रूपादि-अविषयक प्रत्यक्षात्मक पखिग्राह्यश्वरूप से संबेवन मोने के कारण उक्त प्रत्यक्षात्मक विग्रामवरूप की प्रसिद्धि स्पष्ट है। यदि मैधायिका की ओर से यह कहा जाय शि-परिमाणशव्याधसामान्यरूप पक्ष में रूपाविभिन्नश्व का अनुमान अभिप्रेत है और उसके लिये हेतु है नीलरूपाविप्रत्यय से विलक्षण (भिन्नाकार) 'मा महत्-स्याकारककल्पनाइद्धिविषयस्य' । माय यह है कि महाधि विजातीय परिमारणों का अस्तित्पन हो है-प्रतः अणुत्व-महत्व की बुष्टि कल्पनात्मक है और कल्पनामकशि मिरधिपताम नहीं होती लता उसके अधिष्ठानात्मक विषय के रूप में परिमारणसामान्म का इस्युपगम आवश्यक है।"किन्तु बीच कहेगा कि यह मानुमान भी ठीक नहीं है, क्योंकि विपर्यय में अपदि रूपावि में उक्त हेतु के अम्पुपगम में कोई बाधक प्रमाण म होने से उक्त हेतु अनेकान्तिक है, क्योंकि अणु महत' इत्याकारक कल्पनात्मक बुद्धि में अधिष्ठान विधया परिमाण का मान मानने के समान रूपादि का भान मामने में कोई बाघकायोंकिवीमोंही पक्ष में अणमस कल्पनातिकताको पारमायिक विषय अर्यात अणुत्व-महत्वादि का प्राभपभूस कोई वस्तु विषम नहीं होता। यह स्पष्ट है कि कल्पना सर्वत्र प्रसहिषयकही अर्थात करूयमानधर्म के नामय को विषय न करनेवाली ही होती है। जैसे कहे जानेवाले रिसो घावि तम्य में विभिन्न हिसमुख प्रवृत्त अर्थात विभि
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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