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________________ Fut - Er. एवं वि विरोध तु न तदिति वत् स्यादेव प्रत्युत यदि तभ स्यात् तदा तदभावनियतं परसत्यमेव स्यादिति भावः || २२ || १४७ [ अणुद्रव्य को न मानने वाले मीमांसक का प्रतिक्षेप ] पति, मीमांसानुसारी विद्वानों ने जो प्रसरेणु में अवयवधारा का विश्राम मान कर अनुस्व का वजन किया था वह पुलिस नहीं होने से मिरल हो जाता है। क्योंकि जैसे टायमान घटा द्रव्यपर्याय रूप होने से सूक्ष्मद्रव्योपाचानक है उसी प्रकार स्वयमान प्रसरे को भी वयपर्याय होने से सूक्ष्मद्रव्योपवासक मानना आवश्यक है । अतः त्रसरेणुओं में भी सामवस्य की निर्वाध सिद्धि होने के कारण उन में प्रथयधारा की विश्रांति नहीं मानी जा सकती। फलतः असरेणु के अवयवों में अणुश्व को सिद्धि मावश्यक होने से मोमांसमानुपायीओं की ओर से उत्तरोति से अव का मिशकारण असम्भव है। यदि दृश्यमानमपथरूप होने पर भी असरे के उत्पत्ति आदि का अपलाप किया जायगा तो पटादि के भी उत्पादादि के अनुभवों का अपलाप होने से संग्रहलय के माश्वव का प्रसंग होगा अर्थात् यह मानने को स्थिति उपस्थित होगी कि घटादि समस्त पदार्थ सद्य से शव हैं, उनकी उत्पति आदि को प्रतीति कारुपनिक है । व्याख्याकार का कहना है कि इसी बात को अर्थात् एक वस्तु में अपेक्षाभेद से अगुव और महत्व इन विरुद्ध धर्मो का जैसे एकत्र समावेश होता है उसी प्रकार सत्य प्रसश्वरूप विरुद्ध धर्मो का भी अपेक्षा मे से एकत्र समावेश हो सकता है-इस बात को मूलकार ने प्राशय से यामी संकेत से इस प्रकार कहो है कि स् में स्वसत्य के असल के समान परासव जो नहीं है' यह बात स्याय से विचार करने पर सङ्गत नहीं होती, क्योंकि स्वस यह स्वसश्व के असर कर विरोधी है। अतः स्व में स्वसत्व के असरव काम होमा हो उचित है किन्तु स्वसत्त्व परसव का विरोधी नहीं है. अतः स्व में स्वरूव होने पर भी हो सकता है, अन्यथा यदि स्व में पासस्य न होगा तो परसव पास के अभाव का नियत होने से व में परसत्व का प्रसङ्ग दुनिया २३ व कारिका में वस्तु में सएव असत्त्व दोनों के अभ्युपगम के सम्यश्य में प्रतिपक्षी के आक्षेप तथा सिद्धान्त द्वारा उसके परिहार का प्रदर्शन किया गया है अक्षे- परिहाराबाह मूलम् - परिकल्पित मेमवित्वं तत्त्वतो न तत् । ततः क इह दोष मेनु तद्भावसङ्गतिः ||२३|| 2 'एतत् परासन्त्रम् परिकल्पितम् अो (तच) न स्वतन्त्र व्यायातकमिति चेत् १ नन्वित्थं तत् पशसत्त्वम्, ततो नास्ति शशशृहत् । ततः परासवस्य तत्रत इइ स्वस्मि श्रभावात् को दोषः !' इति चेत् १ ननु निश्रयेावसंगतिः = परसत्वस्यापत्तिः | = प्रतिपक्षी का आक्षेप यह है कि यदि परसव को कल्पित मान लिया जाए और पह स्वस्व का कोई ध्याधातक तो है नहीं इसलिए स्वस्थ तो निरावाय रह सकता है, तब क्या हानि है ? अगर बाप कहें तब तो वह काल्पनिक हा मे सेव के समान पालश्व जैसी कोई तात्विक ही नहीं होगी तब हम कहते हैं कि 'मत हो इसमें क्या दोष है ?"
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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