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________________ १४८ शास्त्रमाता इ. ७ को २३ प्रतिपक्षी के इस प्राक्षेप के परिहार में सिशाम्तीका यह कहना है कि यदि पराऽसस्व काल्पनिक होने से वस्तु में उसका अभाव होगा तो उसमें परसत्य की प्रतिपादिरूप से भी घटादि के सत्त्व की आपत्ति होगी, क्योंकि एसवका अभ है परसत्त्वाभाव, अत: उसका अमाव परसस्वरूप होगा क्योंकि अभावामा प्रतियोगीस्वरूप होता है। परासरथमें शशाकीजो समानता जतायी गई वह उचित नहीं है, पाँग का सस्वत: मार मानमे २२ कोई पास नहीं होती। परन्तु स्त्र में परासस्व का समाप मानने पर स्व में इक्तरूप से परसव की आपति होती है। अन नैयायिकादयाननु वयं श्री शशीयत्वषत मुला-ऽसत्त्वयोः स्व-परापेक्षात्वं कम्पितम्' इत्येव नमः। न दिसत्ये स्वापेक्षवं पृथक्त्वादाविव सावधिकन्वरूपम् , निरवधिकखात् सतायाः । नापि घटामारे घटापेशन्यवन सप्रतियोगिफत्वरूपम् , निष्प्रतियोगिकत्वाव भावस्य सचाभावस्य च सप्रतियोगिकन्वेऽपि सचाप्रतियोगिकत्वमेव न तु परप्रतियोगिकत्वम् , (ति न परापेक्षस्वमस्ति । नापि पक्षे संयोग-सदभावयोर्मल-शाखाधवनिमत्यवत् घटे सन्याऽसत्त्वयोः स्व-परापच्छेद्यस्वरूपं स्व-परापेक्षत्यम् , जातेरेवाऽन्यायश्चित्वाभावान , किं पुन: सत्तायाः इति । ततः कथं 'स्त्रापेक्षया सन्यम् , परापेक्षया चाऽसस्वम्' इत्याईनानामयं प्रचादः । इति । [सव और आगन्त्र में स्व-परापेमत्व काल्पनिक है-नयायिक ] इस संवर्भ में मयामिकावि कहते हैं कि हमारा तो इतना ही कहना है कि जैसे श्रृंग में शशसम्म विश्व कल्पित होता है उसी प्रकार सस्थ और लत्व में क्रमशः स्थापेक्षाव प्रौर पररपेक्षत्व कल्पित है क्योंकि वस्तु का सस्व और असत्य दोनों निरपेक्ष होते हैं। दूसरी बात यह है कि सत्ता में स्वापेक्षास्व का निबंधन नहीं हो सकसा जैसे देखिये-(1) पृस्वाव में सायधिकरवरूप स्वाभाव के समान सत्ता में सावधिकस्वरूप स्थापेक्षस्व नहीं माना जा सकता, क्योंकि घर: पहात पृथक' इस प्रतीप्ति के समान 'घटः प्रमुच्यात सत्ताबान' इस प्रकार की प्रतीति प्रसिस होने से हासा निरषिकती है । इसी प्रकार (२) घटाभाव में घट प्रतियोगिकरवरूप घटापेक्षत्व के समान ससा में लप्रतियोगिमस्वरुप स्वापेक्षाय भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि भाव की सत्ता निष्प्रतियोगिक होती है। अतः उतशेति से जैसे सस्वका सापेक्षश्व सम्भव नहीं है, उसी प्रकार प्रसत्त्व का परापेस भी सम्भव नहीं है क्योंकि अगर तो सत्तामावरूप होने से उसमें सप्रतियोगित्व होने पर मी या सत्ताऽभाव सत्ताप्रतियोगिक ही होता है परप्रतियोगिक नहीं होता है इसलिये वह परारेख नहीं हो सकता । परपेक्ष तो वह कहा जाता है को स्व और स्वयटक से अन्य को अपेक्षा करे । जब कि असत्य तो स्वघटक व कोहो प्रतियोगीइप से अपेक्षा करता है । इसी प्रकार यह भी मानना समुषित नहीं है कि (३) अंसे वृक्ष में दिनमान संयोग और संयोगामाब में मृल-शासायनित्यसप मूल-शाखादिसापेकस्व होता है उसी प्रकार घर में विद्यमान तस्व-प्रसत्व में स्व-पराषच्छेनस्वरूप स्व-परापेक्षापहो सके, पोंकि जब जातिमात्र में स्वाभावसामानाधिकरभ्य अथवा अवछिन्नवृत्तिकत्यरूप अव्याप्यक्तित्व नहीं होता तो फिर सत्तारूप मासिविशेष में अव्याप्यवृतिस्व कैसे हो सकेगा? प्रतः माहतों के सामने यह विकट प्रान है कि उनके मत में यह श्वाव कि 'पतु में स्वापेक्षा से सस्व और परापेक्षा से प्रसव होता हैकसे उपपन्न हो सकता है?
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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