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टोका एवं हिन्धी विवेचन ]
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अत्र घम:- माध्यमि जो दावारपार किमपहले सत् ।
वक्तुं न शक्तः किसतासि मन्दो मुङस्थ माधुर्यमिवातिमका ॥१॥ तथाहि-सदभिमता सत्ता तावत सतर्कताडिता दरमेव पलायिता | न हि स्वरूपसत्ता मायानामतिरिक्तसचया कश्चिदुपकारोऽस्ति, स्वतोमधुराया इस सुपाया मधुरद्रयान्तरसंयोगेन । नापि स्वरूपाऽसतां तेषां तया कवितपकारः, बलानामिव सफलार्थसिद्धिहेतुना विपश्विनपश्चितकलालापेन | फयं च सब जात्यादिषु सयवहारः, तत्र सचाया अभावात १। 'एकाधंसमवायेन तत्र स' इति चेत्र ? न, 'सत्' 'सत्' इति प्रतीतेः सर्वत्रैकाफारस्यात् । 'संघन्धाशे ना तस्या वैलमण्यमेवेति चेत् ? इन्त ! तहिं प्रकाशिऽपि तथास्वमेवास्तु । अस्तु वा 'हरिः' 'हरिः' इत्यादी हरिपदवाच्यत्वमिव सत्पदवाच्यायमेव सर्वत्रानुगतम् । 'सत्पदसंफेतविषयत्ताचच्छेदफतयंव तसिद्धिः' इनि घेन ? न, तान्त्रिकाणां परस्परं तसंकेतभेदाच , स्वसंकेतमात्रस्य चाथाऽव्यवस्थापकत्वात् । 'घटः सन्' इत्यादायनुभवसिद्वेष सत्तेति चेत् ? मिद्वैव सा, केवलं तस्या अतिरेका, साधारण्यं च न सिद्धम् । 'द्रव्य जन्पतावच्छेदकतया तसिद्धिः' इति तु निरस्तमधस्तात । तस्मादुत्पाद-व्यय-धीच्ययोगरूपंव सत्ता युक्ता, नान्या ।
[ सत्त्वाऽसय में स्वपरापेत्तत्व की पारमार्थिकता जैन ] इस आक्षेप के सम्बन्ध में सिझामनपक्ष की ओर से व्याख्याकार का कहना है कि लोक को वस्तु के जिसस्वरूप का प्रत्यक्षानुभव होता है उसके वर्णन का सामाय न होने पर किसी को बचनमात्र से उसका अपलाप कर अपनी पाचारला प्रदशित करना उचित नहीं है। उचित यह है कि जैसे गुरको मीठास का अनुभव करने वाला व्यक्ति काम्द से उसका वर्णन करने में असमर्म होने पर उसके सम्बन्ध में मन्य-यानी सदस्य प्रमवा अत्यन्त मूफ बन जाता है उसी प्रकार वस्तु के लोकानुभव सिद्धस्वरूप के सान्य में भी उसके वर्णन का सामभ्यं न होने पर व्यक्ति को उस सम्बन्ध में मन्द प्रयया मूक हो जाना चाहिये ।
[ अतिरिक्त सत्ता का स्वीकार खत्त से पारित ] व्यास्याकार का आशय यह है कि जिस सप्ता को सस्वरूप मानकर उसके सापेक्षस्व का मिराकरण प्रतिपक्षी नंयापिकावि को अभिमत है, वह ससा तो सस मे तारित होने पर पूर भाग जाती है अर्थात सत्तक से बाघ होने के कारण प्रतिपक्षों से मानी गई निरपेक्ष सत्ता की सिश असम्भव है। यह इसप्रकार-भान यवि स्वरूप है सब होता, तो अतिरिक्त सत्ता मागने का कोई फल नहीं हो सकता, पयोंकि उसके सम्बन्ध से बस्तु को सत्ता का लाभही उसके द्वारा वस्तु के ऊपर जपकार महा मा समासा है किन्तु जो माघ स्परप से ही सब है उसके लिये वह सम्भव नहीं है पोंकि इसपक्ष में भाव स्वमावत: सत् होता है। प्रत. जेसे स्वभावतः मधुर अमृत में मघुराख्यान्तर का संयोग निरर्थक है उसीप्रकार स्वभावतः तद्रूप भाव में प्रतिरिक्त सत्ता का अभ्युपगम निरर्थक है । यति भाव स्वरूपतः अलव होगा तो भी अतिरिक्त ससा से उसे ठीक को प्रचार कोई लाभ नहीं होगा किसे सकल अर्यका मोध कराने वाले विद्वानों के विस्तृत मधुर मालाप से अस (धुण्ट) जनों को कोई लाभ नहीं होता।