________________
१५०
[ शास्त्रमा
स्त.
लो. २३
[थ्य और जाति में सच्चप्रतीति समानाकार ही है ] दूसरी बात यह है कि तम्म, गुण और कर्म में सहयवहार की उपपास के लिये अतिरिक्त सत्ता का अभ्युपगम किया जायगा तोजाति प्रावि भाव पार्थो में वह अतिरिक्त सत्ता न रहने से उनमें सहपवहार कैसे हो सकेगा? यदि मह कहा जाय कि-"अभ्यावि तीन पायों में ससा समवायसम्मष से साधबहार की उपपाविका होती है और सामान्माबि सीन पदार्थों में वह एकार्थसमवाय पर्यात स्वसमवापिसमवायसम्बन से साचवहारको उपपाधिका होती है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि द्रव्याधि सोन परायों में एवं सामान्यादि तीन में सक्ष' स्याकारक प्रतीति तमामाकारक होती है, अतः प्रमावि और सामान्यावि में होने वाली 'सत्' प्रतीति में सम्मास्यमेव को कल्पमा उचित नहीं हो सकती। यदि यह कहा भाय कि- 'इत्यादि और सामान्यादि में होने वाली स्व प्रतीति में प्रकारांश में हो एकाकारता है किन्तु सम्पन्धो में उसमें लक्षप्य इष्ट है।-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि सम्मघांश में उसे बिलक्षण माना जायगा तो प्रकार में भी जसे विलक्षण मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती।
पनि उक्त प्रतीति में प्रकारांश में एकाकारता का उपपावन अावश्यकही हो तो जसे हरि' शम के कपि-सिंह-अश्व-इन्ट मायक हो । हारि : इस जा को हरिपक्वानपत्वविषयक मानकर उसमें प्रकाश में एकाकारता मानी जाती है, उसी प्रकार सत् कामको विमिन बस स्वरुपों का बोध होने से अनेकार्थक मान करमी सतपक्षापत्य प्रष्यावि और सामान्यावि में होने वाली 'मत' 'सत' इत्याकार प्रतीतिभी में प्रकाश में एकाकारता का उपपादन किया जा सकता है । प्रतः अतिरिक्त ससा को सिधि नियुक्तिक है।
[ 'सत्' पद्-संकेतविषयतावच्छेदक रूप से सत्ता की सिद्धि दुकर ] यदि यह कहा आप कि-'सत पत्र के संत की विषषता के अवच्छेवकरूप में अतिरिक्तससा की सिद्धि प्राथापक है क्योंकि उसे न शनने पर सत् पद का संकेत हो सम्भव नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सत पत्र के संकेत के विषय में मात्रिकों में प्रति विभिन्नशास्त्र के अनुयायी में परस्पर मतभेव है-जैसे, पाकिमत में प्रत्यक्षसिद्धरत में, पौड मत में अक्रियाकारिएपविशिष्ट में, मेनमत में उत्पाव-व्यय धौथ्य युक्त में प्रौर वेवान्तमत में शुक्रबा में, भ्यायावि के मत में अतिरिक्त ससारूप जातिविशिष्ट में, मत पद का संकेत माना गया है । अत: सत् पर के सांकेतिक प्रथों में मतमेव होने से 'अतिरिक्त सत्ता आति हो सत्पत्र को संकेसविषयत्ता का प्रवक्षेत्रक है या कहता नियुकिक है। यदि 'सत्' पब के ग्यासमतसम्मत संकेत के आधार पर ही ससा जाति की सिद्धिको बायगी तो यह सम्भव नहीं है मोंकि एकपक्षीयस फेस मात्र से किसी प्रको सिद्धि नहीं हो सकती अन्यथा ऐसा मानने पर विभिन्न पुषों द्वारा विभिन्न अर्थों में पविशेष का समेत सम्भव होने से प्रप्रामाणिक अमेक अथों की सिदि का प्रसङ्ग होगा।
यवि यह कहा जाय कि-'घट: सन्' इत्यादि प्रत्यक्ष अनुभव से सत्ता सिद्ध है तो इस कथान से भी प्रतिपनी के प्रतिरिक रसा के साधन का मनोरथ पूरा नहीं हो सकप्ता, मयोंकि उक्त अनुभव से ससा को सिद्धि होने पर भी वह सत्ता घरपटादि आधारभूत पवाथों से भिन्न है ? या तस्वरूप है ? यह बात सिद्ध नहीं हो पाती। "समवायसम्बन्ध से अन्यभाव के प्रति तावास्यसम्बाध से इस्य कारण