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________________ स्या १० टोका एवं हिन्दी विवेचन] १५. है, अतः प्रप्यनिष्ठकारणता निरूपितकार्यता के अवमानक रूप में सत्ता की सिजि होगी" यह भी नहीं कहा जा सकतापोंकि उक्तरूप से सत्तासिद्धि का निराकरण पूर्व में प्रशित किया जा पका है । प्रतः यह मानना ही उचित है कि सत्ता उत्पाब-श्यय प्रोग्ययोग रूप है-उससे भिन्न नहीं है। न चात्रापि “यधुत्पाद-व्यय-धौव्ययोगादसना सत्वम् , तदा शशशृङ्गादेरपि स्यात् । स्वतश्चेत् , स्वरूपसत्वमापातम् । तथा, उत्पाद-व्यय-धीच्याणामपि यद्यन्यतः सत्त्वम् । अनवस्थाप्रसपिता, स्वतश्चेत , भावस्यापि स्वत एव तद् भविष्यति, इति व्यर्थमुत्पादादिकल्पनम्"इत्पादिपर्यनुगोगावकाश, एकान्तपक्षोदिसदोषम्य जात्यन्तरात्मक वस्तुन्यप्रसरात् 1 न हि मिनीपाद-व्यय-ध्रौव्ययोगाद् मावस्य सत्वमस्मामिरभ्युपगम्यते, किन्तूत्पाद-व्यय-धींच्ययोगात्मकमेव सदित्यभ्युपगम्यत इति । तत्र सवं सकलव्यक्त्यनुगत व्यञ्जनपर्यायताम् , प्रतिव्यक्त्यनुगर्न चार्थेपर्यापतामास्कन्दति, इदमेव सादृश्याम्तित्व-स्वरूपास्तित्वमित्यपि गीयते । तच सय सापेक्षमेव सरनुभूयते, 'मातत्यादिना घटः सन्, न तु तन्तुजनितस्वादिना' 'इदानी घटः सन् । न तु प्रान्' इत्याउनुभयात् । बुदिक्षिशेषकतापेक्षयाध्यादेशापराभिषानया सापेषमेव नत् , यथा 'अय मेकः, अयं चैकः' इति कल्पनाकृतापेक्षया द्वित्वादीति | [ उत्पादादि के योग से सत्ता मानने में प्रश्न परम्परा ] पति यह कहा जाय कि-"त्पादावित्रयरूप सता के सम्बन्ध में भी यह प्रान किया जाय कि उत्पादच्ययनोम के योग से यदि असत में भी सत्ता की निष्पत्ति मानी मायगी तो शराङ्गादि में भी सत्व की आपत्ति होगी और मवि इस वोष के पारणार्थ यह कहा जाय कि जो स्वतः सत् होता है उसी में उत्पावादि के योग से सत्त्व होता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इससे उत्पादावि के बिना भी वस्तु को स्वरूपतत्ता तो मित्र हो जाती है फिर उत्पादावियोगरूप नयी सत्ता पपा आएगो : अतः सत्ताको उत्सावादि योगरूप मानना निरर्थक हो जाता है। तथा इसके अतिरिक्त यह भी विचार राय है कि यदि प्रभाव की सत्ता उत्पावास्त्रिय योग से होगी तो उत्पावानिय की भी पसा किसो भन्म से ही मानी जायगो। फिर उस अन्य की सत्ता किसी अन्म से मामी जायगी-इल प्रकार सत्ता की कल्पमा में अनवस्था को आपसि होगी। यदि उत्पावावित्रय की स्वत: सप्ता मानी माम पो तो उसी के समान भाव को भी स्वतः सत्ता सम्भव होने से उत्पादवि की कल्पमा व्यर्थ होगी।" [ अनेकान्त पत्र में उक्त प्रश्नों को अवकाश नहीं ] किन्तु विचार करने पर इन प्रश्नों को अवसर महीं मोलता. क्योंकि वस्तु की एकान्तरूपता के पक्ष में करे गये बोष अनेकान्तरूप वस्तु के अभ्युपगम पक्ष में नहीं हो सकसे । कहने का आशय यह है कि सिद्वान्ती भाव को जो ससा मानते हैं वह भाव से भिन्न उपाय-व्यय प्रौप्य के सम्मथ से नहीं मानते किन्तु भावात्मक उत्पावादि से ही भाबको तसा मानते हैं, अर्थात 'सत'शम्च से प्रयवहत होने वाली बहो है जो स्वयं उत्पावध्यमानीन्यस्वरूप होसी यही सिद्धान्ती काम्पुपगर किन्तु इस सम्बन्ध में यह विशेष जाता है कि जो सव समानाकार सकलयक्तियों में अनुगस होता है वह यजमपर्यायरूप होता है और जो सत्य एक एफ मक्ति में अनुगत होता है यह अर्थ
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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