SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ { शास्त्रातात. लो. १३ पर्यायरूप होता है । असे समस्त कुण्डल में अनुगत उत्पावध्यपनौव्यरूप सस्व है और समस्त मुकुट में मनुगस उत्पादाविरूप सत्व है और वही ग्यम्मनपर्यायरूप है और कुबल. कुटादि प्रप्तिम्पक्ति में प्रातिस्विकरूपेण अनुगत उत्पाषावित्रय रूप सससस पत्तिरूपोमाने ही पिपिम्प है। इसी ध्यानपर्याय को साहरयास्तिस्व अर्थात साइण्यात्मक सस्व और अर्थपर्याय को स्वरूपास्तिरम मानी स्वल्पारमा सत्व भी कहा जाता है। यह दोनों ही प्रकार का सस्व सभी को सापेक्ष ही अमु. सूत होता है क्योंकि घट मास्वत्व-मुस्जयत्व रूप से सत है और तम्तुनिसस्य रूप से सब नहीं हैइस प्रकार घट के पजपर्यायात्मक सस्व का अनुभव होता है। एवं घट इस समय घटोत्पादक कारणव्यापार के भन्सारकाल में सच है किन्तु पूर्वमाल में सव नही है-इस प्रकार घट के पर्यायात्मक सत्य का अनुभव होता है। शिविशेषकुत प्रपेक्षा-जिसका दूसरा नाम 'आदेश' है-उससे भी बस्तु का सत्व डीक उसी प्रकार सापेक्षही होता है, जैसे 'प्रयमेकः प्रयं पैकः' इस कापमा यानी बुद्धि से सम्पन्न अपेक्षा से विस्थावि सापेक्ष होता है। तात्पर्य यह है कि घट का व्याजमषात्मक सत्त्व 'मयं पटः' इस वृद्धि को अपेक्षा से होता है अर्थात घट घटविषिषपतया सव होता है और पदापियशिविषयतया सत नहीं होता। इसी प्रकार घट का उत्पश्याविरूप अपर्याय भी 'घट मिटि से उत्पन्न होता है तन्तु से मही' इत्याकार बुद्धि सापेक्ष होता है। अर्थात घट मिट्टी से उत्पन्न होता है। इस मुदि का विषय होने से उत्पाशादित्रमरूपसत्त्वात्मक होता है और तम्तुजन्यत्व की बुद्धि को प्रपेक्षा उरपाबाविरूपसत्वरमक नहीं होता।। एवं चेइ सममजी प्रपनेते, तामिदानीं दिङ्मात्रेण दर्शयामः, तथाहि-१. स्यादरल्येत्र, २. म्यात्रास्त्येव, ३. स्यादवाव्यमेय, ४. स्यादन्यद स्पानास्त्येव, ५. स्यादस्त्येय स्यादवकध्यमेष, ६. स्यानारत्येव यादवक्तव्यमेव ७, स्पादस्त्येत्र स्थापास्त्येव स्यादवक्तव्यमेव, इत्पुल्लेखः । अत्र सर्वश्रेषकारप्रयोगोऽनभिमतार्थ याच्यर्थम् , इतरथा प्रतिनियत्तस्वार्थानभिवानेनानाभिहिततुल्यतापतेः । सदुक्तम् "वाक्येऽवधारण तावदनिष्टानिवृत्तये । कनन्यम् , अन्यथानुक्तसमन्यात्तस्य कुत्रचित् ।। १ ॥" इति । स्यात्कारप्रयोगश्च मापैचनतिनियतस्वरूपातिपनये । पत्रापि घामों न प्रयुज्यते, नत्रापि ध्यवच्छेदफलोषकाग्यदर्थात् प्रतीयते । नदुक्तम् "सोऽप्रयुक्तोऽपि या तज्ज्ञः सर्वार्थान प्रनीयने । यत्रकारोऽयोगादित्यवच्छेदायोजनः ।। १ ।।" इति । [ सापेक्षसच्याउसच का सूचक सप्तमंगीन्याय ] इस संदर्भ में प्यारयाकार ने वस्तु के सरवाइसव को सापेक्षता का प्युपायम करने के लिये सप्तमङ्गी न्याय का प्रदर्शन किया है जो इस प्रकार है (१) बस्तु स्यारस्त्येव'-वस्तु कति सत् होती ही है । (२) 'वस्तु स्मानास्त्येव वस्तु कश्चित् भासत होती ही है। (1) 'अस्तु स्पाययक्त ज्यमेव'-वस्तु कथपिद 'अबाध्य' होती ही है। (४) 'वास्तु स्यात् मस्ति एच. स्याद नास्त्येव'-वस्तु
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy