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________________ २०६ [ शास्त्रवात स्त०७ श्लो० ३३ चेत्यर्थः 'प्रतिपाधयोरभ्युपगम्यमाने' इति शेषः, न युज्यते न घटते । कुतः १ इत्याइ-अतिप्रसङ्गात एकान्तभेदेऽन्योन्यपदार्थोपपत्तावपि व्याप्तिपदार्थानुपपः, ऐक्याच-एकान्ताऽभेदे व्याप्तिपदार्थोपपत्तावप्यन्योन्यपदार्थानुपपत्तेश्च, शब्दार्थानुपपत्तिताम् गुण-गुणिनावन्योन्यव्याप्तौ' इत्यादि प्रकृतवाक्यार्थानुपपत्तेः ॥ ३२ ।। [भेदाभेद के विना अन्योन्यव्याप्ति का असंभव ] कारिका ३२ में उक्त धात को ही और स्पष्ट किया गया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार हैप्रतिपाद्य विषयों में एकान्तभेद अथवा एकान्त अभेद मानने पर उनमें अन्योन्य व्याप्ति अर्थान परस्पर में एक दूसरे की व्याप्यता नहीं उपपन्न हो सकती, क्योंकि एकान्त भेद मानने पर अन्योन्य पदार्थ तो उपपन्न हो जाता है क्योंकि भेद पक्ष में दो का अस्तित्व है किन्तु व्याप्ति पदार्थ को उपपत्ति नहीं होती क्योंकि सह्यादि-हिमालय को तरह भिन्न वस्तुमों में एक दूसरे से व्याप्ति नहीं होती। एवं एकान्त अभेद मानने पर एक ही वस्तु होती है तो यद्यपि उसमें व्याप्ति पदार्थ उपपन्न हो सकता है, स्वयं का स्वयं से व्याप्त होना स्वाभाविक है, किन्तु तथापि अन्योन्य पदार्थ की उपपत्ति नहीं होतो क्योंकि अन्योन्यता एक में न होकर को वस्तुओं में ही होती हैं। अतः दोनों पक्षों में 'गुण-गुणिनी अन्योन्यव्याप्ती'-'गुण और गुणो एक दूसरे से व्याप्त होते हैं। इस वाक्यार्थ को उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः उक्त वाक्यार्थ को उपपत्ति के अनुरोध से बस्तु में एकान्तभेद अथवा एकान्त अभद नहीं माना जा सकता ॥३२।। एतदेवान्वयमुखेनाहमूलम् अन्योन्यमिति यदुर्भदं व्यामिश्वाह विपर्ययम् । भेदाभेदे बयोस्तस्मादन्योन्यव्याप्तिसंभवः ॥ ३३ ॥ यत्-यस्मात , 'अन्योन्यम्' इति पदं भेदमाह, तहिनतवृत्तित्वे सति तद्भिपतवृत्तित्वस्यान्योन्यपदार्थत्वात् , 'घट-पटावन्योन्यसंयुक्तो' इत्यत्र ‘घट-पटौ घटमित्रपटवृत्तित्वे सति पटभिन्नघटवृत्तियः संयोगस्तद्वन्ती' इत्यन्वयबोधदर्शनात् । व्याप्तिध-व्याप्तिपदं च, विपर्ययम्-अभेदम् आह, 'घटो नीलव्याप्तः' इत्यत्र 'घटो नीलाभिन्नः' इति विवरणात् । तस्माद् द्वयोर्मेदाभेद एवाभ्युपगम्यमाने अन्योन्यव्याप्तिसंभवः अन्योन्यव्याप्तिशब्दार्थोपपत्तिः । एवं च गुण-गुण्यादिकमन्योन्यव्याप्तमिति शब्दादेव भेदाभेदसिद्धिः ॥ ३३ ॥ [ अन्योन्य और व्याप्ति का अर्थ ] कारिका ३३ में उक्त अर्थ को ही अन्यध द्वारा कहा गया है. कारिका का अर्थ इस प्रकार है - अन्योन्य पद भेव का बोधक है क्योंकि एक से भिन्न दूसरे में विद्यमान होते हुए दूसरे से भिन्न एक में विद्यमान होना-अन्योन्य पद का अर्थ है । जैसे, घटपटो अन्योन्यसंयुक्तो' घट और पट अन्योन्य में संयुक्त हैं-इस वाक्य से यह समझा जाता है कि घट और पट, घट भिन्न पट में वृत्ति और पट भिन्न घट में वृत्ति संयोग, के आश्रय हैं।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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