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________________ स्पा.१०ीका एवं हिन्दी विवेचन ] २०७ व्याप्ति पद विपर्यय यानी अभेद का बोधक होता है, जैसे, 'घटो नील-व्याप्त:-घट नील से ध्याप्त है। इस वाक्य से 'घट नील से अभिन्न हैं। इस प्रकार का बोध होता है। इससे स्पष्ट है कि दो वस्तुओं में भेद और अभेद दोनों के मानने पर ही 'अन्योन्यष्याप्ति' शब्द के प्रर्थ की उपपत्ति होती है । इस प्रकार यह स्पष्ट है कि 'गुण-गुणो आदि अन्योन्य व्याप्त होते हैं। इस प्रयोग से ही गुण-गुणी आदि में भेव और अमेव दोनों की सिद्धि होती है । __ न च 'वहयालोकावन्योन्यं व्याप्तौ' इतिबदन परस्परं व्याप्तिप्रत्यय एव, ममवायेन गुणादेस्तादात्म्येन गुण्यादिव्यानत्वात् , तादात्म्येन गुण्यादेच समवायेन गुणादिव्याप्तत्वादिति वाच्यम् , नील-घटयोरन्योन्यव्याप्तिप्रतीत्यनुपपत्तेः, क्षीरनीरादिसाधारणान्योन्यव्याप्स्यभिप्रायेणेव तथा प्रयोगाच्चेति भावः । अपि च, 'घटो न नीलरूपम्-नीलरूपं न घटात पृथक इति प्रत्यक्षतोऽपि गुणगुण्यादावनुभूयते एव भेदाऽभेदी । न च 'नील न घटात् पृथक्' इत्यत्र घटावधिकपृथक्स्वाभाव एवार्थः, घटाऽवृत्तिरूपे घटाऽपृथक्त्याप्रत्ययात् । न चात्र पृथक्पदस्यासमवेतत्वमर्थः, तथा च नीलं न घटासमवेतमित्यर्थे इति वाच्यम् ; 'घटो न नीलात् पृथक' इत्यस्यानुपपत्तः घटस्य नीलाऽसमवेतत्वादेव, 'घटो घटत्वाद् न पृथक्' इत्यत्र घटस्वाऽसमवेतस्वाऽप्रसिद्धेश्च। [भेदाभेद के विना अन्योन्यव्याप्ति सम्भावना का निरसन ] यदि यह कहा जाय कि-"जसे 'वलयालोको अन्योन्यव्याप्ती वह्नि और आलोक एक दूसरे से व्याप्त है' यहाँ वह्नि (अग्नि) और पालोक में प्रभेद होने पर उनमें एक दूसरे को ध्याप्ति होती है प्राव जहां वह्नि का पालोक होता है वहाँ वह्नि होता है और जहाँ वह्नि होता है यहां वह्निका आलोक होता है इस प्रकार इन दोनों में व्याप्ति होतो है । उसी प्रकार गुण और गुणी में अमेव न होने पर भी समवाय और तादात्म्य सम्बन्ध से दोनों में व्याप्ति हो सकती है जैसे, समवाय सम्बन्ध से रांगण है वहां तादात्म्य सम्बन्ध से गुणी है एवं तादात्म्य सम्बन्ध से जहां गुणी है वहां समवाय सम्बन्ध से गुण है। इस प्रकार गुणी और मुण में एकान्त भेद पक्ष में भी परस्पर व्याप्ति हो सकती है" तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि एकान्तभेद में ही प्रन्योन्यन्याप्ति मानने पर नील और घट में अन्योन्यव्याप्ति की प्रतीति नहीं हो सकती, क्योंकि नील और घर में एकान्त मेव नहीं है, अन्यथा नीलो घटः' इस प्रकार का प्रयोग नहीं हो सकता । और दूसरी बात यह है कि क्षीर और नीर आदि में जिस प्रकार की अन्योन्यव्याप्ति है उस प्रकार प्रन्योन्यव्याप्ति के अभिप्राय से हो गुण और गुणो में अन्योन्यध्याप्ति का व्यवहार होता है। दूसरी बात यह है कि 'घटो न नीलरूपंह नील रुप से भिन्न है। नीलरूप न घटातु पृथक भीलरूप घट से पृथक-भिन्न नहीं है। इस प्रत्यक्ष प्रतीति से भी गुण और गुणी में भेदाभेद का अनुभव होता है। यदि यह कहा जाय कि 'नोलन घटात पृथक' इस वाक्य से नीलरूप में घटावधिक पृथवश्व के अभाव को ही प्रतीति होती है तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि घट में अविद्यमान रूप में घटायधिक पृथक्त्व के प्रभाव को प्रतीति नहीं होती।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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