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[ शास्त्रात ७ खो. १३
पदि 'मूले पुतः कपिसंयोगों इस प्रतीति में भूल में प्रवरचेवकरणका मान आनुमविक हो तो वह अपव्वेदकस्य पपिसंयोगापेक्षम हो हर मापेक्ष ही होता है और यह पक्षापेक्षामोदय पक्षनिकापित एकरसहित, वक्षनिष्ट वका प्रतियोगित्वरूप है। तात्पर्य, 'मले पक्षाकपितयोगी' का अर्थ है मूल से भिन्नाभिन वन पिसंयोग का प्राथप है कि पक्ष मूलानि कमिसंयोग या पाश्रय है। क्योंकि संयोगजन्यसंयोग के प्रभाव में, वनिष्ठसंयोग को अभयकता पूलाविरेशों में सम्भव नहीं है। इसीलिये विवक्षामेव से 'मूले वक्षः कषिसंयोगी' इस बाप में प्रामाण्य-अप्रा. माण्य का विमाप होता है, अर्थात मूल में पक्षापेक्षाषच्छेवकत्व के मोष में तात्पर्य रणने पर उसमें प्रामाण्य और कपिसंयोगापेक्षावच्छेदकस्य के बोध में तात्पर्य होने पर अप्रामाण्य होता है । इसप्रकार अवघेरकरण में संयोगापेक्षता का खंडन हो जाने से अवयवातिरिक्तापयतो पकान कि'अपयषी में अन्य मेव से रसत्य-अरक्तरमानने में कोई विरोष महाँ है'-निरस्त हो जाता है। दूसरी बात यह है कि "घट: वामे रतः न दक्षिणे-घट वामभाग में रक्त है बक्षिणभाग में नहीं" इस प्रतीति में घट में दक्षिणभागावोस रमेव मा माल होता है-ओं मसङ्गत है। योंकि ऐसा मानने पर अध्यात्मवृत्तिमेव के मम्युपगम की आपसि होती है। इसके प्रतिकार में यह महों कहा जा सकता कि-'उक्त प्रतीति में घर में रक्तमेव का भान न होकर रक्तत्व के सत्यतामाका भान होता है'-क्योंकि उक्तप्रतीति 'घटः पामे रक्तो न दक्षिणे' इस वाक्य से होती है और इसवामय में अमुयोगीवाचक घट पद के उत्सर सप्तमी विभक्तिमही है। और मन पद से अत्यन्तामाव का घोष अमुयोगीवापकप के उत्तर सप्तमी विभक्ति होने पर ही होता है, प्रथमा होने पर मेव का ही घोष होता है।
न च रक्तत्वं पटेजकद्रव्यनिष्टमेघ परम्परासंबन्धन प्रतीयते, अरक्तत्वं च समवायेन रक्तमेद एवेत्यपि यस्तम , परम्परासंबन्धाञ्जीतेः, 'दछ रक्तम् "नेह रस्तम्' इति विभागाप्रसङ्गान , अरक्तावयवेऽपि परम्परासंबन्धेन रक्तत्वधीप्रसङ्गाय । अपिच, प्रतिनियतानावृतावयदोपलम्मे घटस्या:पृथु-पृथ-पृथुतर-पृथुतमत्याधु पलम्भोऽवयमाऽभेद विना दुर्घटः, अंशेष्वेव सचिश्यसंभयान । परिणामभेदेऽध्यक्षस्य भ्रान्तन्वे स्थलाकारेजप प्रान्तस्वमेव, इति 'मलक्षण एवाध्यश्नमभ्रान्तम् , अवयत्री तु सांकृत एव' इति वदन् सौगात एव विजयत ।
एतेन 'उपलभ्यमानोऽवयव्यनात एक, तद्गतपरिमाणयहोऽपीष्ट एव, तहतहस्तत्वादिजातिग्रह तु यावदययवायच्छेदेन सैनिकऽपि हेतुः' इति लीलावतीकार प्रभुतीनामभिप्रायो निरस्तः, यावदयपत्रावनदेन संनिकस्याप्रसंभवास । परमागमध्यावयमाघरच्छेदेन तदनुपपसा, प्रतिनियतावथमायनछेदेन संनिकदि इस्तत्मादिन च प्रतिनियतावयवावभासे परिमाणभेदाद्यवभासोऽपि किं नाम्पुपेयने १ चित्रप्रतिभासावितस्यैव वस्तुनो युक्तलात, अधिकारययापगमे तावत एव तस्य दर्शनात् । 'तदान्यदेव स्वम्परिमाणं द्रव्यमिति थे ? प्रागपि नाकदन्यदेव । 'नानान्र एकत्यानुपपत्तिरिति चेत् ! तबचायं दोषः । कथं चैवं प्रासादादायकत्वप्रत्ययः ।। न हि प्रासादादिक्रमकदम भरिम्पुपगम्यते, विजानीयाना द्रव्याऽनासम्मकन्यात् । 'समूहकृतं तत्रैकवमिति चेत् १ पटादावपि कि न तथा १ । न हि पटादी प्रासादादी च