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स्वर ४० टीका एवं हिन्दी]
विशेष में मतदवग्रह की कारणीभूताभावप्रतियोगितारूप जो प्रतिबन्धकता है- पद का रहाaur जसका धर्मविषया अथवा सम्यन्यविधयः अवच्छेदक नहीं होता। अतः उक्त रक्तवतियथकता से अस्थि नहीं हो सकती । अतः यह कहना कि समावरिकता सामच्छेअरक्तत्व का अभिभावक होती है, वह असङ्गत है ।
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न व रक्तात्रयव विपयकतद्र ( दर) तत्वग्रड़े सहागः प्रतिषन्धक इति वाच्यम्, गौरबाद, रक्ताय पत्राच्छेदेन चक्षुः संनिकर्षे रक्तावयत्राविषयकत दरक्तत्वप्रतीतिप्रसङ्गाच। किञ्च, 'किश्चित् यस्त्रं रक्तम्' 'सर्व वस्त्रं रक्तं' इति प्रतीतो 'किश्वित्' इति 'सर्वम्' इति च विशेष एव प्रतीयते न तु संयोगविशेषरूपरागे किञ्चिदवयवावच्छिनत्यं सर्वावयवात्रच्छ त्वं च । 'यूले वृक्षः कपिसंयोगी' इत्यत्रापि मूलवृचिकपिसंयोगवान् वृक्षः' इत्येव स्वारसिकोऽर्थः । यदि य मुलेऽवच्छेदकत्वं भासते तदा तदपि वृक्षापेक्षमेव स्वनिरूपितकत्व संचलित मेदप्रतियोगित्वरूपम् । अत एव नयभेदेन प्रामाण्याप्रामाण्यविभागः । एवं च 'अवच्छेदकभेदाद न रफ्ता रक्तत्वादिविरोधः" इति निरस्तम् अव्याप्यवृत्तिभेदाभ्युपगमप्रसङ्गाच ।
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[ प्रतिबध्यताचच्छेद कोटि में रक्तावयवविषयकत्व के निवेश में दोष ]
यदि यह कहा जाय कि रक्तावयक सवयी के अरबसवज्ञान में अवयवगत र सम स्वाध्यसमवायसम्म से प्रतिबन्धक तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतिबध्यतावक कोटि में रक्तावयवविषमकरण का निवेश करने से प्रसित्रय प्रतिबन्धक भाव में गौरव है। यदि उसका निवेश न कर अवयवो के अरकरग्रह में अवयवरसाव को प्रतिक माना जायगा तो अवयवी के झरक्त भाग में भी अरब न हो सकेगा ।
दूसरी बात यह है कि प्रतिबध्यतावककोटि में रक्तावयवविषयक का निवेश करने पर अब रक्तभागामध्येमेन अवयव में नेत्र का संनिकर्ष हो धौर अवयव एवं अवयवी में मेव होने के कारण तथा एककाल में अवयव और अवधी में संयोग का उपलम्भक न होने के। कारण रक्त भाग में चक्षुः संनिकर्ष नहीं है उस समय में रक्तावयवाविषयक प्ररत्वग्रह को आपत्ति होगी । उपर्युक्त से अतिरिक्त यह भी तथ्य है कि "किस्त्रिं रक्तम्" वस्त्र कुछ अंश में एक है" एवं सर्व वस्त्रं तं समस्त यस् रक्त है” इन प्रोतियों में किदिए और सशब्द से शेष की हो प्रतोति होती है न कि रक्षकद्रव्य के वस्त्रनिष्ठ सयोगरूप राग में विवयवाचिनश्च अध्या सर्वात्य की प्रतीति होती है। भतः वस्त्रावि अवयवी को अवयवों से सर्वथा अतिरिक्त न मानकर अवयवसमुदायरूप मानना ही उचित है।
[ 'मृले वृक्षः कपि संयोगी' इस प्रतीति का स्वाभाविक अर्थ ]
जो स्थिति वस्त्रगत र संयोग की है वही संयोगमात्र की है इसलिये 'सूले वृक्षः कपिसंयोगो' इसका भी स्वाभाविक अर्थ यह है कि वृक्ष मूलवृतिकपिसंयोग का आश्रय है न कि वृक्ष लावच्छेद्य कपिसंयोग का आश्रय है। तथा 'मूलवृतिकपिसंयोग का आषय वृक्ष है यह अर्थ मूल और वृक्ष में अस्पतमेव स होते से सर्वेषा अनुपपन्न भी नहीं है।