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[ शास्त्रवार्ता० स्त०७ श्लो०६०-६१
परमतं दृषयतिमूलम्-नित्यैकयोगतो व्यक्तिभेदेऽप्येषा न संगता।
तनिधि प्रसनगन सदेवेदमयोगतः ॥६० ॥ व्यक्तिभेदेऽपि वाल-वादिशरीरभेदेऽपि नित्यैकयोगता निन्यैकशरीरत्वसामान्यसंबन्धात् एषा उक्तप्रत्यभिज्ञा न सङ्गता । कुतः ! इत्याव-भिन्नयोगाद् भूतले 'इह घटः' इतिवत् 'तदिह' इति प्रसङ्गेन, नित्यैकम्य तत्पदार्थत्वात् , 'तदेवेदमित्यस्य' इति शेपः, अयोगता अनुपपनेः, नित्या-ऽनित्ययोस्तादात्म्याभावान् । 'तजातीयस्य तादात्म्याद् नायोग' इति चेत् १ तथा सति 'तजातीयोऽयम्' इति स्यात् , न तु 'सोऽयम्' इति । कथं च क्वचिद् नित्यस्य संबन्धः, क्वचिच तद्वतस्तादात्म्य भासते ? । 'अदृष्टभेदादिति चेत् ? तत एव तर्हि शबलवस्तु तदा तदा तथा तथा भासताम् , एकस्य चिच्यकल्पनाया न्याय्यत्वात 'धर्मी०' इति न्यायात् ।। ६० ।।
[एक अनुगत नित्य सामान्य के द्वारा प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति असंगत ]
६०वों कारिका में एकान्तवावी के मत को सदोष दिखाया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-एकान्तवादी का यह कहना ठीक नहीं है-'बाल' पुया और वृद्ध शरीर में मेव होने पर भी उनमें एक सामान्य सम्बन्ध है और वह है एक नित्य शरीरत्व सामान्य का होना। इस सम्बन्ध से ही उक्त भिन्न शरीरों में तदेव इवं' इस प्रकार एकश्व की प्रत्यभिज्ञा होती है क्योंकि इस मान्यता में शरीर और शरीरत्व इन दो मिन्न वस्तुओं का सम्बन्ध होने से जैसे भूतल और घट में 'इह घटः' इस प्रकार सम्बन्ध की बुद्धि होती है उसी प्रकार 'तदेव-इदं के स्थान में 'तदिह इस प्रतीति को प्रापत्ति होगी क्योंकि उक्त मान्यता में 'तत्' पद का अर्थ है नित्य एक । फलतः 'तवेध इदं यह प्रत्यभिज्ञा न हो सकेगी क्योंकि तत् पदार्थ नित्य और इदं पदार्थ अनित्य में तादात्म्य का प्रभाव है । यदि यह कहा जाय कि 'इवं पदार्थ में तत् पचाय का तादात्म्य न होने पर भी तज्जातीय का तादात्म्य होने से उक्त प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि तज्जातीय के तादात्म्य से प्रत्यमिज्ञा की उपपत्ति करने पर उसमें 'सोऽयं' इम आकार के बदले 'तज्जातीयोऽयं इस आकार की आपत्ति होगी। इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि क्यों कहीं पर नित्य के सम्बन्ध का भान होगा और कहीं पर नित्य सम्बन्धयान के तादात्म्य काभान होगा? और यदि इसको उपपत्ति
को जायगी तो उसकी अपेक्षा यह मानना ही उचित होगा कि-'प्रहश्य मेध से भिन्नभिन्न काल में भिन्न भिन्नरूप से शबल वस्तु थानो नित्य-अनित्य एक-अनेक रूप वस्तु का ही भान होता है, क्योंकि विभिन्न धर्मों को कल्पना को अपेक्षा एक धर्मी में विभिन्न धर्मों की कल्पना म्याय. सङ्गत होने से एक वस्तु में वैचित्र्य की कल्पना ही न्यायसङ्गत है ।। ६० ॥
न चेयं भ्रान्तिकारणादप्युत्पत्तुमर्हति परमत इत्याहमुलम्-साहश्याऽज्ञानतो न्याय्या न च विभ्रमबलादपि ।
एतछयाग्रहे युक्तं न घ सादृश्यकल्पनम् ॥६१॥