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स्या क. टोका एवं हिन्दी विवेचन 1
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है क्योंकि उनमें केवल द्रष्य रूप से ही अभेद होता है, इदन्त्व और रजतत्त्व रूप से तो उनमें भेद
होता ही है।
और जो लोग पूर्वापर घट में एकान्तरूप से मेव हो मानते हैं उनके मत में तो 'सोऽयं इस प्रत्यभिज्ञा की कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त मत में पूर्वापर घट में एकस्व का कोई योग नहीं है यह बात पहले कही जा चुकी है, और प्रागे भी कही जायगी ।। ५८ ।।
स्वपक्षे तदुपपत्तिमाह-- मूलम् तस्यैव तु तथाभावे कथविभेदयोगतः ।
प्रमातुरपि तदुभावायुज्यते मुख्यवृत्तितः ॥ ५९ ॥ तस्यैव तु-पूर्वस्यैव तु वस्तुनः, तथाभावे-नन्वयस्वभावाऽपरित्यागेनापरस्त्रभावोपादाने, कश्चिद् भेदयोगतः तद्र्व्यतोऽभेदेऽपि तत्पर्यायतो भेदात् प्रमातुरपि तत्परिच्छेदकप्रमाणपरिणतस्यात्मनोऽपि, तथाभावात् ग्राह्यवद् ग्राहकस्य पूर्वा-ऽपरभावेनैकाऽनेकरूपत्वात् , युज्यते मुख्यवृत्तितस्तद्व्यवहाराबाधेन यथोक्तप्रत्यभिज्ञा । न ह्यन्य एवानुभवति अन्य एव च प्रतिजानीते, नवा तदनुभव-प्रत्यभिज्ञयोभिन्नैकाश्रयत्वमपि, संबन्धानुपपत्तेः, पूर्वाऽपरार्थवदनुभवित्-प्रत्यभिज्ञातस्वभावानुभवाच्चेति ।। ५६ ॥
[पूर्वापरवर्ती ग्राहक में भी भेदाभेद ] ५९वीं कारिका में अनेकान्तवाद की दृष्टि से पूर्वापर घट में उक्त प्रत्यभिज्ञा की उपपत्ति बतायी गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-अनेकान्त पक्ष में पूर्वकालिक वस्तु ही अपने मूलभूत स्वभाव का पारत्याग न करते हए अन्य स्वभाव को ग्रहण करती है प्रतः पूर्वापर वस्तु में मूलद्रव्यास्मना अमेव होने पर भी पर्यायात्मना मेव होता है। प्रमाता व्यक्ति भी पूर्वापर वस्तु के ऐक्य-ग्रहीता रूप में परिणत हो जाता है, प्रर्याद वह भी पूर्व वस्तु के स्वभाव को ग्रहण करने के मूलभूत स्वभाव के साथ ही उसके अन्य स्वमाव के ग्राहकरूप में परिवर्तित हो जाता है, फलतः प्राह्य वस्तु जैसे पूर्वापरवर्ती होने से एक-अनेकरूप होती है। उसी प्रकार महोता पुरुष भी पूर्वापरवर्ती होकर एक. अनेकरूप हो जाता है । अतः अनेकान्त पक्ष में मुख्यवृत्ति से अर्थात पूर्वापरवा में अमेव्यवहार का बाष न होने से प्राह्य वस्तु में 'सोऽयं' इस प्रत्यभिज्ञा के समान ग्रहोता में भी सोऽहं इस प्रकार को प्रत्यभिज्ञा उपपन्न होता है। निश्चय ही यह नहीं माना जा सकता कि-'पूर्वकाल में वस्तु का अनुमक दूसरा करता है पौर परकाल में उसकी प्रत्यभिज्ञा कोई अन्य करता है।' तथा अनुभव और प्रत्यभिशा में भिनाश्रयता भी नहीं हो सकती, क्योंकि भिन्नाश्रयता मानने पर दोनों में सम्बन्धको उपपत्ति नहीं हो सकती है। और यह भी यथार्थ है कि पूर्वापर वस्तु में जैसे एकस्वभावता का अनुभव होता है उसी प्रकार अनुमविता चौर प्रत्यभिज्ञाता में भी एकस्वभावता का अनुभव होता है । इस प्रकार अनेकान्त पक्ष में पूर्वापरकालीन ग्राह्य वस्तु में और पूर्वापरकालोन ग्रहीता पक्ति में मूलरूप से अभेद और पर्यायरूप से मेव होने से ग्राह्य भार ग्रहीता मैं स एवाऽहं तदेवेदं प्रत्यभिबाने इस प्रकार की प्रत्यभिज्ञा का अनुभव होता है ।। ५९ ॥