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स्या.क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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सादृश्याज्ञानता-सादृश्यज्ञानाभावात , विनमवलादपि भ्रमहेतुसामादपि नैषा क्षणिकेषु विभिन्नेष्येकस्त्रप्रत्यभिज्ञा न्याय्या । हेर्ने समर्थयति-एतदद्वयाग्रहे-सदृशद्वयस्य क्षणिकज्ञानेन ग्रहीतुमशक्यत्वे न च मादृश्यकल्यनं युक्तम्, संयुक्तद्वयाऽग्रहे संयोगकल्पनरत् । न चाऽसंयुक्तभागद्वयग्रहे पि संयोगाऽकल्पनात् संयुक्तभागद्वयग्रहसामग्र्या संयोगकल्पनवत् सदृशद्वयग्रहसामग्रीत एव सादृश्यकल्पनोपपत्तिः, क्रमिकसदृशद्वयग्रहसामान्या एकस्या अनु. पपः, अनन्वयिनिरंशज्ञानोपगमे संयुक्तभागद्वयाहमामय्या अध्यनुपपरेः । निरस्तश्च सौगताभिमतः सामग्रीपक्षः प्रागति ॥ ६१ ॥
[क्षणिकपक्ष में सादृश्यज्ञान की असंगति ] ६१वीं कारिका में यह बताया गया है कि एकान्तवाद में 'सोऽयं' यह प्रत्यभिज्ञा भ्रम के कारण द्वारा भी नहीं उत्पन्न हो सकती।कारिका का अर्थ इस प्रकार है-क्षणिक भिन्न पदार्थों में एकत्व की प्रत्यभिज्ञा भ्रमजनक कारणसानग्री से भी नहीं उत्पन्न हो सकती क्योंकि एकत्व भ्रम का सादृश्यज्ञानरूप कारण दो क्षणिक पदार्थों में नहीं हो सकता, क्योंकि क्षणिकज्ञान के द्वारा क्रम से उत्पन्न होने वाले दो सदृश पदार्थों का ग्रहण नहीं हो सकता। क्षणिक दो पदार्थों में काल्पनिक सादृश्य भी उसी प्रकार नहीं हो सकता जिस प्रकार वो संगत रगों का गहण न होने पर उनमें काल्पनिक संयोग नहीं होता।
__ यदि यह कहा जाय फि-"संयुक्त भागद्वय के अज्ञान काल में उनमें काल्पनिक संयोग न होने पर भी संयुक्त भागद्वय के ज्ञान की सामग्री से उनमें संयोग को कल्पना होती है, उसी प्रकार सदृशद्वय का ज्ञान न होने पर भी उस ज्ञान की सामग्री से सादृश्य की कल्पना हो सकती है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कम से उत्पन्न होने वाले सदृशद्वय के ज्ञान की एक सामग्री भी दुर्घट है। साथ ही, ज्ञान अनन्वयी और निरंश होता है इस मान्यता में संयुक्त भागद्वय के ज्ञान को सामग्री भी अनुपपन्न है। अत. उक्त दृष्टान्त से सादृश्यकल्पना का उपपावन नहीं किया जा सकता । और मुख्य बात यह है कि सौगत को मान्य सामग्रीपक्ष का पहले हो । चौथे स्तबक में ) निराकरण किया जा चका है, अतः उस निराकृत पक्ष को लेकर सादृश्यकल्पना की उपपत्ति नहीं की जा सकती।। ६१ ॥
उत्पधतां वा यथा कथञ्चिदेषा, तथापि वावाभावाद् न भ्रान्तेत्याहमूलम्-न व भ्रान्तापि सहाघामावादेव कदाचन ।
योगिप्रत्ययतभावे प्रमाणं नास्ति किञ्चन ॥ ६२॥ न च प्रान्ताप्युक्तप्रत्यभिज्ञा कदाचन कदाचिदपि, सदाधाभावादेव-सम्यग्बाधकप्रत्ययानवतारादेव । यद्धि भ्रान्तं ज्ञानं तत्र नियमतो बाधकावतारः, यथा शुक्तौ रजतज्ञाने । 'चेतनेञ्चेतनभ्रमे नायं नियम' इति चेत् ? न, तत्रापि विशेषदर्शिनां बाधावतारात् । अत्रापि योगिनां बाधावतारोऽस्त्येवेत्याशङ्कयाह-योगिनां ज्ञानस्योक्तप्रत्यभिज्ञावाधकरवे नास्ति प्रमाणं किञ्चन, श्रद्धामात्रशरणत्वात् ॥ ६२ ॥