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________________ २४४ शास्त्रवा० स्त० ४ श्लो. ६३ [ 'यह वही हैं ऐसी प्रत्यभिज्ञा अभ्रान्त हैं ] ६२वीं कारिका में यह बताया गया है कि यदि उक्त प्रत्यभिज्ञा किसी प्रकार उत्पन्न मी हो जाय तो बाधक न होने से वह भ्रमात्मक नहीं हो सकती। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-पूर्वापरकालोन घट आदि में होने वाली 'सोऽयं घटः' यह प्रत्यभिज्ञा भ्रमात्मक नहीं हो सकती पयोंकि उसके साधक सम्यक ज्ञान की उत्पत्ति कभी नहीं होती और वस्तुस्थिति यह है कि भ्रमात्मकशान के बाद बाधक शान का उदय अवश्य होता है जैसा कि शुक्ति-मीप में रजतभ्रम के स्थल में देखा जाता है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-'भ्रम के अनन्तर बाधक प्रत्यय की उत्पत्ति का नियम अचेतन में अचेतन के भ्रम के सम्बन्ध में ही है किन्तु वेतन में अचेतन के भ्रम के सम्बन्ध में नहीं है क्योंकि 'अहं कृशः, अहं स्थलः' आदि भ्रम जिसे होता है उसे 'नाऽहं कृशः, नाऽहं स्थूलः' इस प्रकार बाधक प्रत्यय नहीं होता"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चेतन और अचेतन के भेव का ज्ञान जिसे होता है उसे वेतन में अचेतन भ्रम के बाधक प्रत्यय की उत्पत्ति होती ही है। ___ यदि यह कहा जाय कि-"पूर्वापरवर्ती घट आदि पदार्यों में 'सोऽयं' इस प्रकार को भ्रमात्मक प्रत्यभिज्ञा के बाद योगियों को उसके बाधक प्रत्यय की उत्पत्ति होती है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रत्यभिज्ञा के बाधक योगी के प्रत्यक्ष के उत्पत्ति में श्रद्धा के अतिरिक्त कोई प्रमाण नहीं है और श्रद्धा स्वयं प्रप्रमाण है ॥ ६२ ॥ एतदेव प्रकटयति-- मूलम्- माना योगी विजानात्यनाना नेत्यन्त्र का प्रमा । देशनाया। विने यानुगुण्येनापि प्रवृत्तितः ॥ ६३ ।। नाना प्रतिक्षणभिन्नम् योगी विजानाति साक्षात्करोति जगत् , न त्वनानाअचणिकस्वभावम् , इत्यत्र का प्रमा-कि निश्चायकम् १। "क्षणिकाः सर्व संस्काराः" इति देशनैवात्रार्थे प्रमाणम् , यथादृष्टार्थस्य योगिना देशनादित्याशङ्कयाइ-देशनाया उक्तलपणायाः पिनेयानुगुपयेनापि-बिनाप्यर्थं श्रोत्रनुग्रहार्थमपि प्रवृत्तितासंभवात बाणभार्यामृतत्वदेशनावद ॥ ६३॥ [ योगिज्ञान से क्षणिकत्व की सिद्धि दुष्कर ] ६३वों कारिका में पूर्व कारिका के उक्त अंश की हो पुष्टि की गयी है। कारिका का अर्थ : इस प्रकार है-'योगी को जगत् का प्रतिक्षण भिन्नवस्तुसमष्टि रूप में हो प्रत्यक्ष होता है और स्थिर वस्तु को समष्टिरूप में प्रत्यक्ष नहीं होता' इसमें कोई नियामक नहीं है। यदि यह कहा जाय कि"सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं-बुद्ध का यह कथन हो इस बात में प्रमाण है कि योगी को क्षणिक रूप में ही जगत् का साक्षात्कार होता है, क्योंकि वह वस्तु को जिस प में देखता है उसो रूप में उसका उपदेश करता है"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उपदेशयोग्य व्यक्ति की मानसिक स्थिति के अनुसार उसके अनुग्रहार्थ वस्तु का अतद्रूप में भी उपदेश हो सकता है, यह ठीक उसी प्रकार है कि जैसे अपनी जीवित भार्या में आसक्त ब्राह्मण को संन्यास आश्रम में प्रवेश की इच्छा की पूर्ति के लिए, कोई उसे उसकी जीवित भार्या को मृत बताता है ।। ६३]
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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