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स्याटीका एवं हिन्दी विवेचन ]
तदिदमुक्तम्--[ सम्भति पो-२
"णियपत्रयणिज्जसथा सन्धणया परविालणे मोहा ।
ते उण ण दिवसमओ विमयह सच्चे व अलिए वा ॥" अम्यार्थ:-निजकवचनीये स्वविषये परिच्छेय सत्या सम्यग्ज्ञानरूपाः सर्व एव नपाः संग्रहादयः, तद्वति तदवगाहित्वात् । परविचालने परविषयोरपनने मोहा सुबन्तीति मोहा असमर्थाः, परविपयस्यापि सत्यत्वेनोन्मूलयितुमशक्यस्यात्, तदभाषे स्यविषयस्याप्यम्यषस्थितेः, मिथो नान्तरीयकत्वात् । अतः परविषयस्याभावे स्वविषयस्याप्यसबात तत्प्रत्ययस्य मिथ्यान्नमेषेत्एवधारयन् घटसमयो-ज्ञातानेकान्तः पुनस्तान् नयान् न विमजते सत्यामलीकान् घा, किन्सिवरनयविषयसम्पपेक्षतया 'अस्त्येव द्रव्यार्थतः' इत्येवं भजनया स्वनयामिप्रेतमय सत्यमेवावधारयति, यत् यत्र यदपेक्षयास्ति तस्य तत्र तदपेक्षया ग्राहकत्वेनैव नयप्रामाण्यात् । अत एव द्रव्यास्तिकादेः प्रत्येकमित्यरूपतया सत्यम् , अनित्थरूपतया चाऽसवं परिभाषितम्-[ सम्मति सूत्र--]
"दहिउ ति तम्हा गस्थि पाओ णियमसुद्धजातीओ।
न य पज्जडिओ पाम कोइ भयणाइ उ बिसेसो ॥ १ ॥” इति । [अने ! ] न हि विषय मेदकृतोऽनयीभेदः यात्मफरपर प्रातिस्विकरूपेण द्वाम्या महान , किन्तु भजनपा-विवक्षाभेदकृतप्रविभासभेदादित्युत्तरार्धतात्पर्यम् ।
[नय के आपेक्षिक-प्रामाण्य का मूलाधार ] उस तथ्य सम्मतितर्फ प्रथमका २५ षौं गाया में इस रूप में प्रतिपादित किया गया है कि संग्रहावि सभी मयसपने परिच विवप में सम्पग कामरूप होते है क्योंकि सदाश्रय में तव के प्राहक होते हैं। अन्य नप विषय का विचालन-निराकरण करने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि अन्य नय का विषय मी कश्चित् सरय होता है. अस एवं उसका उन्मूलन नहीं किया जा सकता कारण यह है कि यदि किसी मम से प्रत्य नम के विषय का उन्मूलन होगा, तो उसके फलस्वरूप अन्य नघ के विषय का अभाव होने पर नप के अपने विषय का भी अभाव हो जायगा। क्योंकि दोनों ही मपके विषय एक दूसरे के प्रभाव में नहीं होते 1 इसलिये अनेकान्तवेताको 'अन्य नय के विषय का अभाव होने पर स्वविषय कामो प्रसस्व होता है इस तान से स्वात्मशान में परमम के विषय निषेषक मय में मिथ्यात्व का अवधारण हो जाता है, अतः वह नयों का सत्य और अलीकरूप से विमाजम र निजकवचनीय सत्याः सर्वनयाः परविमान मोहाः । ताम् पुन दृष्टसमपो विमयते सत्यान् बालोकान् बा ।।३।।
यास्तिक कि तस्माद नास्ति नयो नियमशुजातीयः । न च पर्यवास्तिको नाम कोऽपि भजनया तु विषेषः ।।