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________________ [ शास्पातालको १. धारकत्वमस्येय, एवकारेणानुत्पमत्वामाषज्ञापनेऽप्युत्पन्नत्वप्रकाशमव्यापाराऽपरित्यागात् , अनेकान्तबलादुभयोपपतेः रस्ततादशायाँ घटे 'न श्यामः' इति बुद्धियादिति चेत् । सत्यम् , इतरनयविषयविरोधाश्धारणे भजनों पिना स्वरिपथावधारणास्यवाऽप्रवृत्त, प्राफ् श्यामस्वेन ज्ञाते 'इदानीम्' इनि विनिर्मो केण 'न श्यामः' इति वृद्धिवत् प्रवृत्तस्यापि च तस्यान्ययाविषयत्वरूपमिथ्यात्योपस्थितैः । [ दुनय में नयस्वापत्ति का निराकरण ] यदि यह शंका को जाय कि-"घट उत्पन्न एव' यह जो स्यामा से रहित तुर्नय है वह भी "घर उत्पन्नः' इसनय के समान स्वविषय का प्रचारक होता है। क्योंकि प्रद्यपि इस में एषकार से अनुत्पन्नस्वाभाष का ज्ञापन होता है, तथापि वह उत्पनत्व के प्रकाशन व्यापार से शून्य नहीं होता क्योकि वस्तु भनेकासात्मक पानी मनंत धरिमक होती है अतः चक्क दुनय में अनुत्पन्नस्वाभाव और उत्पत्रस्य वोर्मो की भापकता उपपल है। योकि घटात्मक वस्तु अनुत्पन्नस्वाभाव और उत्पाहरण उभमषर्मक है। इस तथ्य को सुगमला से अवगत कराने के लिये व्याख्याकार ने पूर्वपक्षी की ओर से ररुघट में होनेवाली 'घदोन ज्यामः' इस यदि को दृष्टान्तरूप से प्रस्तुत किया है। उनका आराध मह है कि जैसे रक्त घट में 'घटोन स्मामः' यह पिपामत्वाभाष काही पुरुलेख करती है। रमता का उल्लेख नहीं करतो किन्तु घट रक्तता-श्यामस्वाभा उम्रम धर्ममा होने से घट में रक्तता का जस्लेश म करती हई भी उसकी प्राहक होती है क्योंकि पयामत्याभाव का काम जिस घर में हो रहा है वह रक्त है, प्रतएव रक्तघट निर्विवादरूप से उक्त बुद्धि का विषय है। उसी प्रकार 'घट उत्पन्न एवं' यह बुर्नय ययपि अनुत्पन्नस्याभाव का उल्लेखो है, उत्पन्नाव का उल्लेखी नहीं, किन्तु उत्पन्न घट उत्पत्रस्य अनुस्पस्वभाव उमय धर्मा हैने से घर में उत्पनत्व का उल्लेख न करती हुई भी उसका ज्ञापन करती है। अतः उसकी उत्पन्नवाहका अपा है आर! स्वविषमस्वधारकत्वन 'घट उत्पन्न एव' इस पूरे दुमय वाक्य में नयत्व को भापति अनिवार्य है।" . तो यह ठीक नहीं है कोंक से पूर्व में जिस चट में श्यामश्व जात होता है-बाद में उस घर में पवानी इस अंधा का परित्याग कर होनेवालो 'घटोमधामः' इस बुद्धि में क्याराभाय का अपधारण नहीं होता, क्योंकि 'इवानी' इस अंश के अभाव में उल पुन्धि का विषय कालिक पामस्वाभाव होगा ओ पूर्वकाल में श्यामत्यरूप से शाम घर में नहीं है। इसी प्रकार 'पट उत्पन्न एष' यह दुर्नय से भी 'मजमा' यानी त्यात पव के बिना प्राप्त अपेक्षा के विना अपने विषय का मषधारण नहीं हो सकता। क्योंकि उसमें एथकार से प्रन्य नय के विषपभूत अनुत्पन्नत्य के विरोध का अवचार होता है मौर मय के विषम मह नियम है कि अप्र इतरमय को विषय के विरोध का अवधारण के साथ किसी नय से अपने विषय का असधारण होता है तो वह भजना-अपेक्षा के बिना नहीं होता। यदि भजना के बिना मी उससे स्वविषय का अवधारण होगा तो उसमें अन्यथाविषयत्यल्प मियात्व' होगा । अतः स्वषिषम का यथार्थपोषकम होने से दूध में मयस्व की आपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि नयत्य में यथार्थ स्वविषयकोषकत्व को मास्ति है, अक्ष: पुनंय में यथार्थस्यविषयबोधकरवरूप व्यापक के प्रभाव में मयस्वरूप ध्याय के अभाष का निर्णय हो जाएगा ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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