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[ शास्त्रमास स० [७] इलो० ३
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एक होता है। तो यह विशेष ठीक नहीं है, क्योंकि प्रमेयत्व जो विभिन्न पदार्थों में अनुगत प्रतोत होता है यह प्रमाविषयस्वरूप न होकर स्वाश्रयविषयत्व सम्बन्ध से प्रभावरूप है। वही अनुगत प्रमेयवहार का नियामक है और स्वरूपतः एक है।"
तो यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि घट में जैसे घटश्व का साक्षात् सम्बन्ध से अनुभव होता है उसी प्रकार विभिन्न पदार्थो में | प्रमेयश्व का भी अनुभव सामान्य से ही आनुभविक है। अतः उस अनुभव को रस से प्रमात्वविषयक नहीं माना जा सकता ।
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एकमपि न तत्र संख्यारूपम्, अनभ्युपगमात् । नाप्याश्रयभेदकृत भेदाऽप्रतियोगित्यादिकम् आश्रयभेदेन तद्भेदावश्यकत्वात् अन्यथाऽयेकत्वादावप्याश्रयभेदकृतभेदे मानाभावादतिव्याप्त्यनिरासात् । असहायत्वरूपमेकत्वमपि तत्र प्रतिनियतव्यक्ति व्यङ्ग्यत्वाभ्युपगमाद् दुर्वधम् । अनेकसमयेत्तत्वमपि समचायनिरासाद् निरस्तमेत्र |
[ जाति में एकत्व की संख्यादिरूप में अनुपपति ]
दुग्धत्ववधित्वादि सामान्य में नित्यत्व का उत्पादन न हो सकने से मिन्यश्वघटित सामास्वलक्षण का समर्थन दुष्कर है। उसीप्रकार एकत्व का निमंचन न हो सकने से भी लक्षण में एकश्व का प्रवेश करने पर उसका समर्थन दुष्कर हो सकता है- जैसे सामान्यलक्षणघटक एकस्व को संख्यारूप नहीं मान सकते क्योंकि संख्या गुण है और गुण नियम से द्रव्य में ही रहता है अतः संख्पारूप एकस्व द्रव्यभि सामान्य में नहीं रह सकता। उसे आश्रयमेवमुलकमेव का प्रतियोगिव रूप भी नहीं माना जा सकता क्योंकि आश्रयभेव से बुधश्य-दधित्यादि का मेव आवश्यक होता है अतः उनमें आश्र reme का अप्रतियोगित्वरूप एकत्व नहीं रह सकता। यदि मायभव से दुग्घर वधित्वादि कामे त माना जायगा तो परमाणुत्रों के एकस्वादि में मो भेव नहीं हो सकेगा क्योंकि आश्रयमेव को छोडकर अन्य कोई उनकी भिन्नता का साधक नहीं है । अतः एकत्व के निवेश से परमाणु प्रावि के एकवि में सामान्य के लक्षण को प्रतिव्याप्ति का निवारण नहीं हो सकता। क्योंकि श्राश्रयमेव से आश्रित में भेद न मानने पर परमाणुगत एक भी नित्य र प्रायमेवमूलमेव का अप्रतियोगीरूप एक, तथा उस स्थिति में अनेक ममवेत हो जाता है। एकस्व को सहाय स्वरूप भी नहीं माना जा सकता क्योंकि असहायश्व का अर्थ है सम्यनिरपेक्षस्व । प्रतः वह भी सामान्य में सम्भव नहीं है क्योंकि स्वाश्रय में ही नियम से गृहीत होने के कारण यह भी स्वाश्रयसापेक्ष होता है !
लक्षणघटक 'अनेकसमवेतत्व अंडा भी निरस्तप्राय: है क्योंकि उसका समर्थन समयाय करे प्रामाणिकता पर निर्भर है और उसका निराकरण पहले ही किया जा चुका है।
विश्व, सामान्यस्यैकव्यक्तावेकदेशेन वृत्तिर्भवेद सर्वात्मना का सर्वात्मना वृत्ताकस्मिन्नेव पिण्डे सर्वात्मना परिसमाप्तन्धाद् यावन्तः पिण्डास्तावन्ति सामान्यानि स्युः न वा सामान्यम्, एकपिण्डवृत्तित्वात् रूपादिवत् । एकदेशतापि न सामान्यं स्यात्, सामान्यस्य निरंशत्वेनैकदेशासंभवात् संभवेऽपि तस्य ततो भेदाभेद विकल्पानुपपनेः न च सामान्यस्यानुवृतैकरूपन्यात् काम्यकदेशशब्दयोस्तत्राऽप्रवृत्तिः, निरवयवैकरूपेऽपि व्याप्त्यव्यामिशब्दयोर्भयतेवाभ्युपगमात् तत्र यत्स्मैकदेशय चोक्तदोषाणां समानत्वात् ।
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