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________________ स्या टोका एवं हिन्दी विवेचन ] [एकदेश या पूर्ण रूप से आय में वृत्तिता का असम्भव ] सामान्य को स्वीकार करने में एक और बाषा यह है कि-एक ही सामान्य के अपने अनेक आमयों में पर्सन को सत्पत्ति । स सामान्य के वसंत सम्बन्ध में दो सम्भावनाएं उपस्थित होती है । एक यह कि सामान्य अपने आश्रय भूप्त एक व्यक्ति में एकबेश से रहे अथवा सामना रहे 1 किन्तु ये दोनों हो सम्भावना बोषग्रस्त है क्योंकि यदि सामान्य एक व्यक्ति में सर्वात्मना रहेगा तो एक हो व्यक्ति में यह सर्वात्मना परिसमाप्त हो जाने से अन्य व्यक्ति निःसामान्य हो जायगा, मतः स्यक्तिमेव से सामान्य में मेव मानना होगा, स्योंकि जो सामाम्म एक एक व्यक्ति में ही सस्मिमा समाहित पानी व्याप्त हो जायगा उसका प्रभ्य व्यक्ति में रहना सम्भव नहीं हो सकता, सब कि वह सर्वात्मना एक एक मक्ति में परिसमाप्त होगा तो उसकी सामान्यरूपता भी समाप्त हो जायगी क्योंकि जो एक व्यक्ति में सर्वात्मना रहता है वह सामान्यरूप नहीं होता जसे तत्तद् घट का रूपादिगुण। एक वेश से भी उसका वर्तन नहीं माना जा सकता, क्योंकि एकवेमा में वर्सन मानने पर उसे सोश मानता होगा और सोश मानने पर यह सामान्यस्वरूप नहीं हो सकता बोंकि सामान्य निरंश होता है। अतः जो सामान्य रूप होगा उसका एकवेषा से वतन महों हो सकता । यदि सामान्य में भी पश्चिइएक वेश की कल्पना की जाय तो उससे सामान्य का मेव प्रथवा अमेहनहीं उपपन्न हो सकता मैसे-गोत्व सामान्य जिस एक वेश से एक गोष्यक्ति में रहता है यदि उसे उसके एक देश से भिन्न माना भामगा तो उसके एक वेश के रहने पर भी उसका अपना वर्तमान हो सकेगा । पषि उससे अभिन्न होगा तो एक वा के साथ हो वह एक पक्ति में परिसमाप्त हो जायगा। अतः सर्वात्मना वर्सन पक्ष में रहे गये वोष की इस पक्ष में भी आपत्ति होगी। अतः एक देश से सामान्य का मेव अश्या प्रमेव दोनों ही सम्भव न होने से उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जायगा, क्योंकि कोई भी वस्तु किसी एक मिन अषबा अभिषलप में हो अस्तित्व धारण करती है। अतः सामान्य यदि अपने एक वेश से न भिन्न होगा और न अभिन्न होगा तो फिर उसका अस्तिस्य ही नहीं हो सकेगा। [सामान्प में कृत्स्न-एकदेश विकल्पों का असंभव नहीं है ] घधि यह कहा जाय कि 'कारस्त्यं यानी सर्यात्मना पूर्णरूप से और एक वेश, ये दोनों शाम्बों का प्रयोग साधयम सस्तु में ही होता है किन्तु सामान्य देशतः और कालतः विप्रकृष्ट विभिन्न व्यक्तिओं में एक अनुगस धर्मरूप होता है अत: मिरवयब होने के कारण उसके सम्बन्ध में कृस्स्न और एकोण गावद का प्रयोग सम्भब न होने के कारण 'सामान्य एक देश में रहता है अथवा सर्वाश्मना रहता है इस प्रकार का प्रश्न हो नहीं खड़ा हो सकता। -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि निश्वमेव एकचित्ररूप में पारित और अध्याति का, जोकर एक नाम के समान हैं, उसका प्रयोग सामाम्यवादी स्वयं को स्वीकारतासे-पिघलप के समय में उनका म कवार सर अपने आश्रय में अध्याप्त हो कर नहीं रहता अर्थात एक वेश से नहीं रहता किन्त व्याप्त होकर अर्थात सर्वात्मना रहता है क्योंकि यदि चित्ररूप अपने आश्रम के एक देश में रहेगा तो एकल्प वाले भाग में भी चित्रव्यवहार की प्राप्ति होगी। अतः वा ध्यास होकर अर्यात सर्वारममा अपने पुरे आश्रय में रहता है। इस प्रकार जब सामान्य पौर चित्ररूप दोनों निरंश होते है तो सामान्य के करस्नरूप से पचवा एक वेश से वृत्ति मानने के पक्ष में जो बोए होते हैं यह चिधरूप पक्ष में भी समान है। इसलिये पविचित्ररूप का एकोन अवसंन और कारसन्न वर्तन का व्यवहार हो सकता है तो ऐसे व्यवहार
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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