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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ७ श्लो० २३
भिनानन्तधर्मात्मक वस्तुशक्तिकस्य सदादिपदस्य कालाद्यभेदविशेषप्रतिसंधानेन पर्यायार्थिकनयपर्यालोचनप्रादुर्भवच्छकयार्थबाधप्रतिरोधः । अभेदोपचारश्च पर्यायार्थिकनय गृहीता न्यापोह पर्यवसितसत्तादिमात्रशक्तिकस्य तात्पर्यानुपपत्त्या सदादिपदस्योक्तार्थे लक्षणा ।'
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[ सप्तभङ्गी में सफलादेश - विकला देश ]
उक्त सप्तमङ्गी अपने प्रत्येक भंग द्वारा सकलावेश और विकलादेश का स्वभाव धारण करती है । सफलादेश उस वचन को कहा जाता है जिससे वस्तु की समग्रता का प्रमाण द्वारा निर्णीत are धर्मात्मकता का काल आदि द्वारा उपपत्र श्रमेववृत्ति की प्रधानता से अथवा अभेद के उपचार से युगपत् प्रतिपादन होता है। कहने का प्राशय यह है कि प्रमाण द्वारा यह सिद्ध है कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता हो उसकी समग्रता है जो वस्तु में एक ही काल में विद्यमान रहती है । वस्तु की समग्रता का प्रतिपादन करने वाले वचन को हो सकलादेश कहा जाता है । यह प्रतिपादन कभी अमेधवृत्ति की प्रधानता से होता है और कभी अभेद में लक्षणा द्वारा होता है । जो वचन इससे विपरीत होता है अर्थात् वस्तु का समग्ररूप से प्रतिपादन कर आंशिक रूप से प्रतिपादन करता है उसे विकलये कहा जाता है। अवृत्ति की प्रधानता का अर्थ यह है कि द्रव्याचिकनयानुसार काल आदि के द्वारा प्रतिपाद्य वस्तु के अनन्त घर्मो में अभेद का ज्ञान होने से वस्तु में धर्मों में अभेद बुद्धि द्वारा पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से होने वाले सत् आदि पदों से घटित atter hara का विघटन होना । आशय यह है कि प्रत्याथिक नय द्वारा सत् प्रादि पदों का सत्ता आदि से अभित्र अनन्त धर्मात्मक वस्तु में शक्तिज्ञान होता है। अतः स श्रादि पदों से घटित वाक्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध होना चाहिए, किन्तु पर्यायाथिक नय द्वारा वस्तु के विभिन्न धर्म पर्यायों के उपस्थित होने पर एक वस्तु में विभिन्न धर्मो को अभिन्नता बाधित होने से सत् आदि पदों से घटित वाक्य का अर्थ-बोध दुर्घट हो जाता है। ऐसी स्थिति में जब काल आदि को दृष्टि से प्रतिपाद्य वस्तु के धर्मों में अभेद का ज्ञान होने से वस्तु में अभिरूप से गृहीत अनन्त धर्मों के अभेद का ज्ञान होता है तब उससे उक्त रीति से पर्यायार्थिकनयप्रयुक्त वाक्यार्थ बोध का अवरोध होने से सत् आदि पदों से घटित वाक्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध सम्पन्न होता है। इस प्रकार होने वाला वस्तु की समग्रता का बोध हो अभेदवृति के प्राधान्य से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादनरूप सकला देश है ।
अभेदोपचार का अर्थ है प्रभेद से अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सद श्रादि पद की लक्षणा । इसका आश्रय उस स्थिति में लिया जाता है जब पर्यायार्थिक नय द्वारा अन्यापोह- असद् व्यावृत्ति स्वरूप सत्ता आदि धर्ममात्र में सद् आदि पद का शक्तिग्रह होता है। स्पष्ट है कि इस शक्तिग्रह से सत्ता आदि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध नहीं हो सकता, किन्तु सत् आदि का प्रयोग अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करने के तात्पर्य से ही होता है । सत्ता श्रादि धर्ममात्र में सत् आदि पद के शक्तिग्रह से इस तात्पर्य की उपपत्ति न होने से पर्यायार्थिक नय द्वारा गृहीत वस्तु-धर्मो और उनके प्राश्रयभूत वस्तु के प्रभेव में अर्थात् सत्ता प्रावि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु में सत् आदि पद की लक्षणा होती है। इस लक्षणा से ही सत्ता आदि धर्ममात्र में सत् आदि पद का शक्तिग्रह होने की दशा में भी सत् आदि पद से घटित वषय से प्रमन्त धर्मात्मक वस्तु का बोध होता है। उक्त रीति से सत् आदि पद द्वारा अनन्त धर्मात्मक वस्तु प्रतिपादन ही अभेदोपचार मूलक सफलादेश कहा जाता है।