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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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जब सब आवि पद का द्रव्याथिक नय द्वारा सत्ता आधि से अभिन्न अनन्त धर्मात्मक वस्तु में शक्तिग्रह नहीं होता, अथवा काल आदि की दृष्टि से वस्तुधर्मों में अमेवबुद्धि होकर वस्तु में उन धमा की अभिन्नता का ग्रह नहीं होता, किंवा सत्ता आदि मात्र में सत आदि पद का शक्तिपह होने पर तात्पर्यानुपपत्ति से सत् प्रादि पद की अनन्त धर्मात्मक वस्तु में लक्षणा नहीं होतो उस स्थिति में सब यादि पद से घटित वाक्यों से समग्र रूप से वस्तु का वोध न होकर आंशिकरूप से वस्तु का बोध होने से विकलावेश होता है।
कालादयश्चाष्टाविमे-१. कालः, २. आत्मरूपम', ३. अर्थः, ४. संबन्धः, ५. उपकारः, ६. गुणिदेशः, ७. संसर्गः, ८. शब्द इति च।१. तत्र यत्कालमस्तित्वं तत्कालाः शेषानन्तधमा वस्तुन्येकडेति तेषां कालेनाऽभेदबुतिः। २. यदेव चास्तित्वस्य तद्गुणत्वमात्मरूपं तदेवान्यगुणानामपीत्यात्मरूपेणाऽभेदयत्तिः। ३. य एव चाधारोऽर्थो द्रव्याख्योऽस्तित्वस्य स एवान्यपयोंयाणामित्यर्थेनाऽभेदयत्तिः। ४. य एव चाविधग्भावः संबन्धोऽस्तित्वस्य स एवान्येषामिति संबन्धेनाऽभेदवृत्तिः। ५. य एव चोपकारोऽस्तित्वेन वस्तुनः स्वप्रकारकप्रतीतिविषयत्वलक्षणः, स एवान्येषामित्युपकारेणाऽभेटवृत्तिः। ६. य एव च गुणिनः संवन्धी देशः क्षेत्रलक्षणोऽस्तित्वस्य, स एवान्येषाम् , इति गुणिदेशेनाऽभेदवृत्तिः। ७. य एव च वस्तुनः संसर्गोऽस्तित्वस्याधाराधेयभावलक्षणः, स एवान्येषाम् , इति संसर्गेणाऽमेदवृत्तिः। ८. य एव च 'अस्ति' इति शब्दोऽस्तित्वधर्मात्मकस्य वस्तुनो वाचका, स एवाशेपानन्तधर्मात्मकस्यापि, इति शब्देनाऽमेदवृत्तिः ।
[ कालादि आठ का परिचय ] काल मादि पदार्थ, जिनकी दृष्टि से वस्तु-धर्मों में अमेवज्ञान होता है, उनकी संख्या आठ है, जैसे-१. काल, २ आत्मरूप, ३. प्रर्य, ४. सम्बन्ध, ५. उपकार, ६ गुणीवेश, ७. संसर्ग और ८. शब्द ।
१. जिस काल में किसी वस्तु का अस्तित्व होता है उस काल में अस्तित्व से भिन्न भी उसके अनन्त धर्म होते हैं। ये सभी धर्म एक काल में होने से काल की दृष्टि से अभिन्न होते हैं। वस्तु के अनन्त धर्मों को यह अभिन्नता कालमूलक अभेदवृत्ति हैं।
२. अस्तित्व जिस वस्तु का धर्म होता है वह उसका गुण विशेषण कहा जाता है इस प्रकार तद्गुणत्व अस्तित्व का आत्मरूप होता है। अस्तित्व के समान ही वस्तु के अन्य धर्म भी उसके गुण कहे जाते हैं इस लिए तद्गुणत्व उनका भी आत्मरूप होता है। वस्तु के सभी धर्मों में तद्गुणत्वस्वरूप से अमेदवृत्ति होती है।
३. अर्थ:-जो प्रध्यात्मक अर्थ अस्तित्व का प्राधार होता है वही द्रव्य अन्य पर्याय धर्मों का भी प्राश्रय होता है ! आधार के एक होने से उसमें आश्रित समो धर्मों में अभिन्नता होती है, यह अभिन्नता अर्थमूलक अभेदवृत्ति है।
४. वस्तु के साथ अस्तित्व का जो अपृथगभाव-सम्बन्ध होता है वही वस्तु के साथ उसके अन्य धर्मों का भी सम्बन्ध होता है। इस प्रकार सम्बन्ध की एकता से अन्य धर्मों में अभिन्नता होना उसकी सम्बन्धमूलक अमेदवृत्ति है।