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[ शास्त्रवास० स्त० ७ हलो० २३
५. अस्तित्व धर्म के द्वारा वस्तु का जो उपकार होता है वही उसके अन्य धर्मो द्वारा भी उसका उपकार है और वह उपकार है वस्तु को स्वप्रकारक प्रतीति का विषय बनाना स्पष्ट हो यह उपकार अस्तित्व तथा वस्तु के अन्य धर्मों में समान है। उपकार की एकता की दृष्टि से मिष्पन्न वस्तु धर्मों को यह एकता सनकी उपकार-मूलक असेबवृत्ति है ।
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६. गुणीदेशः- द्रव्य के सम्बन्धी देश को गुणिदेश कहा जाता है, उसे क्षेत्र शब्द से भी प्रभिहित किया जाता है। जिस क्षेत्र में स्थित द्रव्य में उसका अस्तित्व होता है उसी क्षेत्र में स्थित द्रष्य में अन्य धर्म भी रहते हैं। इस प्रकार द्रव्य के सभी धर्मो का एक गुणिवेश (क्षेत्र) होने से उनमें for होती है। यह अभिन्नता गुनिवेशमूलक अभेदवृति है ।
वस्तु
७. वस्तु और अस्तित्व के बीच जो माधाराधेयभाव सम्बन्ध होता है वही, वस्तु और उसके अन्य धर्मों के बीच भी होता है । संसगं दृष्टि से वस्तु-धर्मो को यह अभिनता उसकी संसर्गमूलक श्रमेववृति है ।
वही शब्द अस्तित्व से भिन्न एक शब्द से वस्तु के समग्र अभिन्नता है। यह प्रमि
5. जो अस्ति शब्द अस्तित्व धर्म से अभिन्न वस्तु का वाचक है समग्र धर्मो से नो अभिन्न वस्तु का भी वाचक है इस प्रकार अस्ति इस धर्मो के वाच्य होने के कारण एक शब्द वाच्यत्य की दृष्टि से उन सभी में नता उनको शब्द मूलक अभेदवृत्ति है ।
केचित्तु -- "अनन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपादकत्वाऽविशेषेऽप्याद्यास्त्रय एव भङ्गा निरवयवप्रतिपत्तिद्वारा सफलादेशाः, अधिमास्तु चत्वारः सावयवप्रतिपत्तिद्वारा विकलादेशाः" इति प्रतिपन्न
वन्तः ।
एते च सप्तापि भङ्गाः स्यात्पदाऽलाच्छिता अवधारणैकस्वभावा विषयाऽसत्त्वाद् दुर्नयाः, स्यात्पदलाच्छितस्त्वेतदन्य मोऽपीतशाऽप्रतिक्षेपादेकदेशव्यवहार निबन्धनत्वात् सुनय एव । “अस्ति' इत्यादिकस्तु स्यात्कार वकार विनिर्मुक्तो धर्मान्तरोपादानप्रतिषेधाऽकरणात् स्वार्थमात्रप्रतिपादनप्रवणः सुनयोऽपि न व्यवहाराङ्गमिति द्रष्टव्यम् ।
[ सकलादेश के विषय में अन्य मत ]
कुछ विद्वानों ने यह माना है कि सप्तभङ्गी के सभी भंग अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन करने में समान है तथापि प्रारम्भ के तीन ही भंग वस्तु का निरवयव बोध अखण्ड बोध के उत्पादक होने से सकलादेश हैं और अगले बार भंग वस्तु के सावयव बोध = आंशिक बोध का जनक होने से विकलादेश है ।
सप्तभंगी के सभी भंग जब 'स्यात्' पद से रहित होते हैं तब वे प्रस्तुत अंश विशेष का अवधारण करते हैं। चूँकि विषयभूत वस्तु प्रस्तुत अंशमात्र का ही आधार नहीं होता, अतः अवपारित विषयभूत वस्तु का अस्तित्व न होने से असत् का बोधक होने से दुर्नय हो जाते हैं। किन्तु जब उक्त भंग 'स्यात् ' पद से युक्त होते हैं तब एक भंग भी अपने मुख्यरूप से प्रतिपाद्य भ्रंश से भिन्न अंश का निषेध न करते हुए एक अंश से ही वस्तु के व्यवहार का जनक होने से सुनय हो होता है। और जब