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स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
तृतीय भंग के प्रतिपाद्य अस्तित्व और नास्तित्व का मुख्य रूप से क्रमश: प्रतिपादन की शक्यता के कारण वस्तु के अवतथ्यत्व का प्रतिपादन होता है, एवं षष्ठभंग से द्वितीय अंग से प्रतिपाद्य वस्तु के नास्तित्व का ओर तृतीय भंग से प्रतिपाद्य अस्तित्व और नास्तित्व का मुख्य रूप से एक साथ वर्णन शक्य न होने से वस्तु की प्रवक्तव्यता का प्रतिपादन होता है । वस्तु के प्रस्तुत अस्तित्व, नास्तित्व, अस्तित्व- नास्तित्व उभ्य इन तीन रूपों में प्रथम दो रूपों को विभाजित कर और तीसरे रूप को अविभाजित करके वस्तु का प्रतिपादन अभीष्ट होते पर 'स्थाद् अस्ति च नास्ति च अवक्तव्यश्च' इस सप्तम भंग का प्रयोग होता है - इस भंग की निष्पत्ति प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंगों के सहयोग से होती है। वस्तु यतः यद्यपि अनन्त धर्मात्मक है अतः उसके उक्त तीन रूपों से अतिरिक्त भो चतुर्थ पवम आदिरूप हो सकते हैं, फलतः उनका उपादान कर अन्य अंगों की भी सम्भाव हो सकती है, किन्तु विचार करने पर उक्त सात भंगों से पृथक् भंग की सम्भावना क्षीण हो जाती है क्योंकि वस्तु के दो, तीन, चार, पांच श्रादि सभी रूपों का पर्यवसान एक विभाजक के साथ सम्बन्ध में होता है । श्रतः चतुर्थ आदि भंगों से भिन्न भंग की कल्पना निरयकाश हो जाती है । जैसे, एक हाथ का संयोग अथवा दोनों हाथों में दण्ड का संयोग होने से पुरुष बण्डी होने में कोई अन्तर नहीं होता उसी प्रकार एक अंश को विभाजित तथा दूसरे अंश को अविभाजित कर किंवा दो अंश को विभाजित कर तृतीय अंश को अविभाजित कर वस्तु की विवक्षा होने पर पश्चम, षष्ठ और सप्तम भंग की निष्पत्ति होती है, उसी प्रकार वस्तु के चौथे पांचवे रूप का उपादान करने पर भी एक को विभाजित कर एवं अन्य को अविभाजित कर वस्तु की विवक्षा होने पर पञ्चम और षष्ठ भंग, एवं चौथे अथवा पांचवें रूप और उसके प्रतिद्वन्द्वी रूप इन दोनों को विभाजित और तीसरे को अविभाजित कर वस्तु की विवक्षा होने पर सप्तम भंग की ही निष्पत्ति हो सकती है न की किसी अन्य भंग की । इस प्रकार वस्तु के वौये पांचवे रूप का उपादान करने पर भी निष्पन्न होने वाले भंग में चतुर्थ आदि भंगों से भिन्नता नहीं हो सकती ।
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यदि यह कहा जाय कि वस्तु यतः अनेकान्त रूप है, अनेकविध धर्मों का अभिन आस्पव है अतः दो धर्मो के द्वित्व आदि स्पष्ट रूपों से प्रतिपादन करने की कामना होने पर निष्पन्न होने वाले भंगों में वस्तु के एक-एक रूप को लेकर निष्पन्न होने वाले भंगों को प्रपेक्षा वैलक्षण्य हो सकता है जसे स्थर्य और क्षणिक इन दोनों धर्मो की विवक्षा होने पर वस्तु 'स्याद् उभयं स्थिरं क्षणिकं ६' स्यान्न स्थिरं च क्षणिक च' इस प्रकार के अंग, अस्तित्व आदि अनेकरूप को लेकर निष्पन्न होने वाले स्वाद अस्ति स्यानास्ति आदि भंगों से स्पष्ट विलक्षण हैं अतः उक्त प्रकार के सात भंगों के ही होने का आग्रह निराधार है" इसका उत्तर यह है कि उक्त स्थिति में भंग के श्रवान्तर भेद भी मान्य ही है, इसीलिए मल्लवादी प्रादि विद्वानों ने सप्तभंगी के कोटिशः भेद माने हैं, किन्तु वास्तविकता यह है कि सप्तभंगी की विभाजक उपाधियाँ उन फोटि प्रकार के भंगों को भी आत्मसात करती हैं मतः अंगों के प्रातिविक रूप से कोटिशः भेद होने पर भी विभाजक उपाधियों की सात ही संख्या होने के कारण भङ्गों के सप्तविधविभाग का व्याघात सम्भव नहीं है ।
इयं च सप्तभङ्गी प्रतिभङ्ग' सकलादेशस्वभावा विकलादेशस्वभावा च । प्रमाणप्रतिपन्नानन्तधर्मात्मकवस्तुनः कालादिभिरभेदवृत्तिप्राधान्यात्, अभेदोपचाराद् वा यौगपद्येन प्रतिपादकं चचः सकलादेशः । तद्विपरीतो विकलादेशः । अभेद वृत्तिप्राधान्यम् = 'द्रव्यार्थिकनयगृहीत सत्ताद्य