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________________ * प्रास्ताविक दिव्यदर्शन ट्रस्ट को घोर से विशालकाय शास्त्रवार्ता- समुचय के सातवें स्तबक का प्रकाशन अभिनन्दन - पात्र है। समग्र दार्शनिक सिद्धान्तों का मूल स्रोत है सर्वश भगवान तीर्थकरों की पिषवाणी । गणधर भगवंतों ने उसे सूत्रबद्धस्वरूप प्रदान किया, परम्परा के निगृह पंच महाव्रती साधार्यादि भगवंतों ने उनकी निर्मलता को सुरक्षित रखते हुए प्रवाहित किया। इस भूतगंगा में दिन रात इसे हुये पूज्यपाद माचार्य श्री श्री महाराज ने शास्त्रवार्ता- समुन्वय प्रवराज का प्रणयन किया, उपाध्याय श्री यशोविजय महाशन ने उसके ऊपर विस्तृत व्याख्या की रचना करके जैन के साहित्य में अपूर्व शोभाद्धि की हमारे लिए यह कोई कम आनंव की बात नहीं है। जनेतर वादीबृन्द एकान्त दृष्टि का सहारा लेकर अपने अपने दर्शनों का महल खड़ा कर देते हैं। एकान्तष्टि से वस्तुतस्य का संपूर्ण दर्शन हो नहीं पाता, सिर्फ किसी एक ही पहलु को देखा जा सकता है। वस्तु के किसी एक ही पहलु को देख कर यदि उसके आकार-प्रकार का वर्णन किया जाय तो वह काल तक भी अधूरा ही रहेगा। वस्तु का पूर्ण वर्णन करने के लिये तो उसके संभावित सभी पहलुओं को ओर गंभीर हृष्टिपात करना होगा। वस्तु का संपूर्ण दर्शन दो प्रकार से हो सकता है (१) हम स्वयं सर्व बन कर उसका अवलोकन करें, या (२) हमारी दृष्टि को अनेकान्त का दिव्य मत लगा दे। मानी किसी एक काल में भले ही वस्तु का कोई एक पहलू दृष्टिगोचर होता हो, फिर भी वस्तु के अन्य पहलुओं को भी अच्छी तरह जाँच लेने के बाद ही हम उसके लिये यथावसर कुछ कह सकते के लिये समर्थ हो सकते हैं। जब हम किसी औषध के गुण का वर्णन करेंगे उस वक्त उनके भारी दोषों को दृष्टि से ओमल कैसे रख सकेंगे ? औषध का कोई गुण दिखामा हो तो यह आवश्यक हो जाता है कि उसके दोषों को भी साथ साथ ही बतलाया जाए, अन्यथा भारी समर्थ की सम्भावना रहेगी। रष्टि में अनेकान्स का अंजन लगाये बिना उदार ही नहीं है। इस किये जैन दर्शन में किसी भी सिद्धान्त की स्वतंत्र प्रतिष्ठा नहीं की गयी किन्तु अनेकान्तवाद अनेकान्त सिद्धान्त की हो प्रतिष्ठा की गयी है। प्रस्तुत स्तथ में भी उसी का विस्तृत मिरूपण किया गया है। दानिक जगत् में विशेषत: जिन तस्थों को एकान्तवाद के सहारे निश्चित कर लिया गया है, ये तत्व अनेकान्तवाद के आश्रम से ही मुस्थापित किये जा सकते हैं अभ्यथा नहीं यहीं इस स्तबक का मूलध्वनि है। इस बात को दृष्टि में रखकर यदि इस स्तबक के विषयों का अवलोकन किया जाय तो उससे निम्नलिखित तथ्यों के बारे में तरोष प्राप्त होता - uttaratarane जगत् अकल्पित उत्पाद व्यय और प्रता से अभिव्याप्त है । उत्पाद के दो प्रकार है प्रायोगिक और वैखसिक पुरुषव्यापारजन्य उत्पाद प्रायोगिक है और उसे समृदयाव भी यह सकते हैं क्योंकि वह द्रव्य के अवयवों से जन्य होता है । पुरुषव्यापार मे राजन्य स्वाभाविक उत्पाद को ही वैसिक कहा जाता है उसके भी दो प्रकार हैं समुदयकृत और ऐक टिथक । गगन में बादल आदि की उत्पत्ति स्वाभाविक समुदय कृत होती है। धर्मास्तिकायादि तीन थ्यों की अन्य
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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