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________________ [ शास्त्रवातक स्त. लो. ११ रूप से व्यनिक्षेप और भावनिक्षेप का श्रम्पपगम है मनसर केवल इतना ही है कि प्रत्यापिक एकाततः व्रख्याऽभिन्नरूप में पर्याय को विषम करता है और पर्यायाथिक एकान्तर द्रवम से भिवपर्याय को विषय करता है। समकार प्रख्याधिक भय भी पर्यायविषयक होता है ।"-तु यह कपन भी अपास्सप्रायः है। क्योंकि जिस रीति से यायिक में पर्यायविषयकाष की उपपत्ति होगी उस रोति से वाविपर्यायाधिक नप में मी एकान्ततः पर्यायभिन्नरूप में प्रध्यविषयकाल का अभ्युपगम सम्भव होने से प्रायविषयकस्य को प्रापत्ति होगी । दूसरी बात यह है कितव्याथिक मोर पर्यायाधिक में. जो क्रम से, पर्याय में एकान्तिक द्रव्यामेद और आय में एकामितक पर्यायमेव को, उनका विषम पता कर उनमें अन्तर बताया गया | E' चिता और पांव में एका तथा एकान्त मेद मान्य न होने से बोनों नयों में मिथ्याशिव का प्रसङ्ग होगा। लाध होण्य मोर पर्यायों में ममेव मामने पर काव्याधित पर्यायों में भी प्रख्यात्मना श्रमेव होने से पर्यायद्वय की 'घट में रुप और रस है सप्रकार को सोक्ति की अम्पपसि होगी। एवं द्रव्य पोर पर्याय में अत्यन्तभेवपक्ष में पर्यायाधिक मय से भी ज्य का महण मानने पर पर्यायाधिक से भिन्न प्रयापिक मम के वयय की प्रसक्ति होगी । इसलिये यह मत भाष्यकार द्वारा ही रस्त किया गया है। फलतः प्रत्याधिक नब से नामादिचतुष्टय का अम्युपगम करमे पर उस नस में अध्यार्थिकत्व की हानि तववस्थ है।" [ न्यार्थिकमंग के आक्षप का प्रतीकार ] - इस प्राक्षेप के उसर में व्याख्याकार का कहना है कि उक्त भार उचित नहीं है। क्योंकि नगम-संग्रह और व्यवहार के सोनों नप विशुन और प्रविशुत भेव से दो प्रकार के होते हैं। उनमें अधिशुश नगमारि नय नामादिका मुख्यम्प से भी सम्पगम करते हैं और विशुद्ध नेगमाविनय द्रय के विशेषणरूप में पर्याय का मयुपगम करते हैं । अतः नैगमावि नयों में मानि:शेष को अनुपपति नहीं होती। इसीलिये आगम का यह स्पष्ट उधोष है कि 'समभावरूप गुग में परिणतजीव अम्बाधिक नय की दृष्टि में सामायिक होता है। इस आगम से समतापरिणामविशिष्ट कोच में सामायिकश्ष का विधान होता है। इसप्रकार समतपरिणाम को अध्याधिक का विषय कहने से प्रत्यायिक मम में पर्यापविषमस्व को स्वीकृति सूषित होती है। यदि यह कहा जाय कि-पर्याय को इण्यार्थिक का विषय मानने पर सूस्याथिक में पयायकत्व की आपत्ति होगी-तो पाह ठीक नहीं है। क्योंकि समतापरिणामरूप पर्माय को जीव के विशेषणरूप में म्युपगम करने पर भी अन्य में अमिशेषणाने प प्राधान्य से पर्याय का मधुपगम न होने से पर्यायाधिकरण की आपात नहीं हो सकती है, क्योंकि प्रधानरूप से पर्यायको किरनेवाले कोपर्यायाधिकहा जामावि पर्यायाधिक नमों में नंगयादि मयों के समान विशुद्ध अविशुद्ध का मेद नहीं है। अतः पयायिक नों के विमुद्धमान होने से उनमें नाम स्थापना और व्यका अभ्यमगम नही हो सकता। अत एव मात्र विषयक कता जाता है। उपचार से शतमें मी सामादि विषयवस्व होता है किन्तवा अवास्तव औपचारिक होने में वक्त विभाग का प्रति प्रयाथिक नामावि तुष्यविषयक और पर्यायाधिक भावमाधविषयक होता है। इस विभाग का व्याघास नहीं हो सकता. बयोंकि यह तथ्य पर्यालोचनसिन है कि औपचारिक नामावि विषपकरव से पर्यायाधिक मय में स्वतन्त्र प्रधानरूप से पर्याय-विषयकस्य का व्याघात नहीं होता। ननु तथापि "'णामाइनियं दयट्टियल्स भावो अ पज्जवणयस्स" [वि. आ.मा. ७५]
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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