________________
[सत्रमा० स०७ श्लो. १
होता है। उन मनीषियों का यह भी उपदेश है कि उसाद व्यय और ध्रौव्य घे तीनों जगत का सहभागी पारमार्थिकस्वरूप है। युस्तकाम का सहित अर्थ करने वाले प्रन्य पालपातामों का यह कहना है कि जैसे यह कहा जाता कि माला विभिन्न मोसीओं एवं उन्हें धारण करने वाले सूत्र से मुक्त होती है, उसी प्रकार जगत मी उत्पाय-यय और प्रोक्य से युक्त है। इस कायत में मो कोई दोष नहीं है।
[ जैन मन से उत्पाद का स्वरूप] एमाल्पाकार ने जगत के इन तीनों रूपों का निरूपण करले हुए यह कहा है कि उत्पाद यह "दपुत्पन्नम-यह वस्तु उत्पन्न हुई" इस प्रकार की बुद्धि से सिद्ध. वस्तु का एक धर्म है। इसके वो भव है-एक प्रयोगनित और जूसरा विसाजनित दिलसा यानी प्रकृति अपवा स्वभाव) । प्रयोगजनित का अर्थ है पुरुषव्यापार से उत्पन्न । यह उत्पा, मूतंवण्यों से उत्पन्न अवयव द्वारा निष्पन्न होने से 'समबरवाद'गध से अभिष्ट्रिप्त होता है और इसीलिये उसे अपरिशय कहा जाता है। जैसा कि सम्मति पन्थ तत्सीयकायत की गाथा ३२ में कहा गया है कि-"उत्पाद वो प्रकार का होता है एक प्रयोगजनित और दूसरा विस्रसाजमित । उन में प्रयोगजनित समुत्पाद समुदयवाद रूप होता है और अपरिशुद्ध होता है।"
उसे समुदयमाव काहने का यह कारण स्पष्ट है कि वह मूत्रयों से आर अचमयों के द्वारा उत्पन्न होने के कारपा समुदायल्प होता है-किन्तु उस के लिये प्रयुक्त होने वाला प्रपरिशुद्ध' पष्ट का एक विशेष अघ मह है कि उत्पध होने पाली वस्तु के आश्वयभूत समस्त अवयवों से निष्पत होने वाले उत्पाद की अपेक्षा से पूर्ण स्वभाष होना । अपील. जो उत्पब उत्पन्न होने वाली वस्तु के आश्रयभूत समग्र अवयवों से सम्पादित होने से ही पूर्ण होता है. क्योंकि घट सम मपूर्ण अपयषों से उत्पन्न होता है तो उस में यह व्यवहार नहीं होता कि 'घट पूर्ण रूप से उत्पन्न हुआ।
[ल्पाद प्रयत्न जन्य न होने को शंका का निरसन ] यदि यह शंका की जाय कि-"उम्पाव को प्रयोगनित कहना उचित नहीं है, क्योंकि प्रयोग का अर्थ है पुरष का व्यापार-प्रयत्म और उससे घटादि का ही जन्म होता है न कि उत्पाद का, पोंकि बापाइ आचक्षणमम्बग्य रूप है उस में जो प्रणप्रवाह है यह तो क्रम से स्वयं उपस्थित होसा है जब कि घट पुरणप्रयत्न में उपस्थित होता है। अत उसयोनों का परस्पर सम्म जाहीं दोनों से सम्पन्न होता है न कि पुरुषप्रयत्न से"-तो या शंका ठोष नहीं है बयोंकि जसे 'मुहगरावि के प्रहार से घट नष्ट हुआ इस व्यवहार में घटनास में मुगरपात मन्यस्य सिद्ध होता है उसोप्रकार 'घट पुरुषव्यापार से उत्पन हुआ' इस व्यबहार से उत्पाद में भी पुरुषव्यापारजम्यस्य सिद्ध होमा आवश्यक है।
[उपाइ-नाश दोनों में प्रयत्नजन्यता समान ] यदि आश्चक्षणसम्बन्ध से विनित- विभिन्न रूप में अनुमबाउन होने से उत्पाद का तात्पर्य कि मोती और सूत्र के मसुदाप से माला पुश्रद्रम्प र नहीं होती अनः माला मोती मुत्त, नहीं होतो किन्तु माती-रानभाय होती है. fर भी गाला सुन्दर मोतीयुक्त है रिसा यवहार प्रशिद है, उसी प्रकार जगत उलाद-घय प्रौन्धमय होने पर भी उत्पादश्य मनोव्ययुक्त है ऐसा व्यवहार प्रयोग अनुचित नहीं है ।