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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
दिकृतं नया प्रधानपरिणामादिकृतमिति लभ्यते । तथा, जीवाऽजीवात्मकं जीराधाजीवाश्च जीरा-जीवास्तु आत्मानः समुदायिनो यस्य ना, तेन चिन्मात्रादिचादनिरास: 1 तथा सापाय-न्यप-ध्रौव्ययुक्तम-सन्ति पारमार्थिकानि यानि न सु कस्पितानि उत्पादव्ययधौम्यानि तयुक्तं तन्मयम् । "मौक्तिकादिसहिता माला-इतिवन् नसहितमित्याप न दृष्यति" इत्पन्ये । ___अनोत्पादः 'उत्पमिदम्' इति धीसाक्षिको धर्मः । स विविधः-१. प्रयोगजनिता, २. विलसाजनितश्च । पुरुषव्यापारजनित आद्यः, स च मूर्निमद्रव्यारब्धावयवकृतवान् समुदयवाद, तत एव चालायपरिशुद्ध इति गीयते । तदुक्तम्-[सम्मति-१२६. ]
"उपाओ दुरिमाणो पोगजपिओ अ वीससा चेव ।
तरथ य पोगपिओ मुमुदयबाओ पपरिसुद्धो ।। १॥" इनि अत्राऽपरिशुद्धन्वं स्वाश्रययायदषयोत्पादापेक्षया पूर्णस्वभावान्त्रम् । न अपूर्णाययवो घट उत्पद्यमानः कानोत्पत्र इति व्यवड़ियन इति । ननु न प्रयोगजन्य उत्पादः, घटादव प्रयत्नजन्यवाद, उत्पात रानशासंचःमाथा-पोति ?, समरसता नष्टो घटा' इति व्यपदेशाद् नाशे मुद्गरपालजन्यत्ववन् पुरुषव्यापारात्पनो घरः' इनि व्यवहारादत्पादऽपि पुरुषव्यापारजन्पत्त्यस्यावश्यफत्वात , विक्कियाननुभूयमानत्येनोपादापलापे च नाशस्याप्यपलापप्रमणात, उत्पसेराप्रमाणसंबन्धनान्यथानिद्रानाशस्यापि चरमसणसंबन्धमाशेनाऽन्यथासिद्धेः मुत्रचत्वात् , अन्यत्र तदाधारताप्रत्ययस्योत्पत्याधारना प्रत्ययस्येवावच्छेदकत्वेनोपपत्तेः । 'घटप्रतियोगियेन नाशी विलक्षण एवानुभूयस' इति चेत् ? नयोत्पादोरीति तुल्यम । किन, एवमाधमणे 'आधक्षणलंबन्धवान् घटः' इतित 'आचण उत्पको घटः' इनि प्रयोगो न सूपपदः म्यादिति न किश्चिदशन् ।
[ जन मनीपीयों का मत--उत्पादादित्रययुक्त जगन ] अन्य विज्ञान जिन्होंने समोषौनशास्त्र में पथोचित श्रम किया है, अर्थात भगवान के प्रवचन = विपरीमूलक उपनिष =आगमशास्त्र का सम्यक अयन और उनके प्रतिपाद्य अर्थ-सस्व की मायनापालोचना की है, ऐसे जैन मनीषियों का यह कहना है कि नगत पर से प्रतिपावित होने वाला अर्थसमूह अनादि-प्रवाह को अपेक्षा से निश्चित रूप से सार्वकालिक है। उनका यह कथम एषकारयुक्त यानी सावधारण है-जिस से यह भूचित होता है कि अगन न तो ईश्वर आदि से रचित है पौरन प्रकृति के परिणामादि से प्रानुन त है। उन मनीधिमों का यह भी उबेश है कि जगन और और प्रजोय के समुहात्मक है। इस कथन से अगत् की मिन्नारूपता अथवा भचिन्मात्ररूपता लादि का निषष सूचित # जादो मिथिलरूपः प्रयोगनितम्ववित्रसा चव । तच च प्रयोगनितः सपुदयथा दीपरिधः ।।