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[शास्त्रमाता स्त०७ लो०-१
मिन की कान्ति चमकते हये सुवर्ण के समान सुन्दर है, तथा समस्त देवगण जिनके सानिध्य को अनिश सेवा करते हैं, जिन्होंने अपने विकम-ज्ञानवर्शनवारित्रके चरमोत्कर्ष के पराकम से रागदेवावि पनों का संहार कर डाला है, जिन के भवभ्रमण जन्मपरंपरा) का अन्त हो चुका है, अपना मिन के जनन-संसार जन्म एवं सविध-सम्पूर्ण श्रम सर्वथा निवृत्त हो बफे हैं, जो सत्पुरुषों के हृदय में शान्ति का सर्जन करते हैं, जो कल्याण के कल्पयन हैं, घीरपुरुष अपने मंगल लाभ के लिये सदंव जिम के चरणों की शरणा ग्रहण करते हैं ये श्री शान्तिनाथ भगवान लोगों के समस्त संताप का निरा. करण करें।॥१॥
दूसरे पक्ष में व्याख्याकार ने भगवान् पारवनाथ की महिमा का वर्णन किया है-पद्य का अर्थ इस प्रकार है
प्रणाम करते समय मुकुट के चमकती हुई सबल किरणों की प्रप्तरणशील प्रगाढ प्रदीप्ति के वेग से जिन के चरणों में वेवराज इ को सबंध चक्र का भ्रम होता आया है, श्रीमती वामा माता के उस सुपुत्र भगवान् पापर्धनाथ का चरणयुगल किसी के भी दषय में यदि पदन्यास-स्थान ग्रहण करते है तो क्या उस के निकट कल्पवृक्ष-कामाला उपस्थिती हो ? • पाप है किमी व्यक्ति भगवान् के चरणयुगाल का निरन्तर अपने चिप्स से चिन्तन करता है। उक्त मूल्यवान वस्तुएं उस की सेवा में सर्वत्र प्रस्तुप्त रहती हैं।। २ ।।
भगवान के मुख से निर्गत त्रिपक्षी अर्थात् "उबन्नेह वा, विगमेव वा, धुवेत या" पपत्रय स्वरूप नदी से उत्पन्न होने वाले तरंगो-पागमास्भों के भाव से उपहलने वाले समरूपी विधियों के प्रसार से जिस में विभिन्न नयों के वेग से स्याद्वादकापी फनसमा स्फुरिस होता है ऐसा घसुदिक वर्धमान जिम का स्थानावरस्नाकर माज भी स्कृिष्ट रूप से विजेता हो रहा है ग्रिलोको के एकमात्र आधारभूत सबजयी उस भगवान महावीर का हम प्रणिधान संस्मरण करते हैं ।।३।।
[सानों को निमन्त्रण ] चौधे पद्य में छायाकार ने कर्णमधुर बात सुनने को समुत्सूक प्रमों से निवेदन किया है कि अन्य शास्त्रों के सिद्धान्तों की वर्षाप मलीम जल पीने पर भी जिम के तत्त्व बोध को पिपासा निवस माहीहै वह श्रवणोत्मक प्यक्तिगण अब कर्ण को अमत्तुल्य जन शास्त्रों को संज्ञाम्कि चर्चा को सुनने के लिये लायधान हो जाय ।। ४ ।।
मूलप्रश्व की प्रथम कारिका में जनमत की बह बात कही गई है जो लोकहित-लोक मुख और लोकनिःश्रेयस को जननी है और अशान-अन्धकार को दूर करनेवाली ज्योति समान है तथा परमतत्व को उपनिषद विधान है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है
अज्ञाननिमिरासदीपिका परमनस्योपनिषद्भूनां हिन-मुख-निःश्रेयसकरीमाईतमत्तवार्तामाहमुलम्--अन्ये स्वाहरनाम्येच जीवाजोवान्मक जगन् ।
सनुत्पाश्च्यायधौनयपुर शास्त्रकृतमाः ॥ : || अन्ये तु शास्त्रक्सनमाः कृतप्रवचनोपनिषदध्ययनभावना जनाः, अगत्-जगत्पदप्रसिपाघम् अनायधः प्रहापेक्षया गदालनमत्र आहुः । पत्रकारो व्यवस्थायाम् , तेन नेश्वरा