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________________ ११२ [शास्त्रबासी० स०७ लो.१५ किन्तु षठोपयोग-घटमानरूप भावट जसे मलारमना अधुपगत नहीं है। अतः उरूप्रकरण ते सम्पद उक्त कथन का अभिप्राय गमाविको मङ्गलरूप में नामावित्रविषयक मताने में है। ऐसा मानने में कोई भी नहीं है, क्योंकि साममिक्षेप का पृथक प्रयुपगम में होने से पृथक मिळेपरूप में शान में अभ्युपगत नाम को सत्यता नहीं है। प्रसः नाम के समान प्रत्यय में मङ्गलरूप से गमाविविषयत्व को प्रसक्ति नही होती। पोषधासप्रकरण की स्थिति इससे अलग है, वह व्यवस्था पनि वस्तु को वास्तविकस्थिति के प्रतिपादन का प्रकरण है। अत: जप्त प्रकरण में नामानि निक्षपचतुष्तय को मैगमादि का विषय कहा गया है। अतः उक्त वो कपन प्रकरण मेव मूलक होने से उन में विरोध की सम्भावना नहीं हो सकती। अथवा भाष्यकार के प्रथम कपन का अन्य नय से समर्थन किया जा सकता है, वह नय हैनामाविषय में मुख्यरूप से प्रध्याधिक विषय का अभ्युपगम । प्रतः उक्त कथन का माप यह है जिनामादिनिक्षेप त्रय मुख्यरूप सेण्याथिक नय का विषय है, कि उसका यह तात्पर्य है कि मामाविनिक्षेपत्रममात्र ही तण्याधिक का विषय। क्योकि-यधिकस्य नाम मा पर . काररूप अवधारणा से मुक्त नहीं है। प्रतः अन्यत्र प्रत्याथिक को भावनिःक्षेपविषमक भी बताने से इन बचन की असङ्गतिमली हो सकती । तथा 'पर्यायनयस्य भावः' यह वमन एवकाररूप भववारण से युक्त है। अतः भावनिक्षेपही पर्यायायिक का विषय है यही भाष्यकार का अभिप्राय है । इसीलिये तरवार्थसत्र की वृत्ति में भी कहा गया है कि पार निक्षेपों में प्रारम्भ के नामानि सीन मिःोप प्रध्याप्पिक के विषय होते हैं क्योंकि व्याधिक तसाप से मुख्यतया जहाँ तीम निक्षेपों को विषय करतार अन्तिममापि पर्यायनयका बात है. क्योंकि पर्यायनय का विषय होता है वस्तु का तलनूप में परिणाम और उसका शान थे वोतों मावात्मक हैं। इसीलिमे सम्मलिमत्र की गाया में भी इस बात को परमार्थरूप में प्रतिपादित किया गया है कि नाम, स्थापना और प्रम ये तीनों निक्षेप प्रत्याथिक के विषय है मुख्यरूपसे विषय है। भावनिक्षेप पर्याययिक का मुख्य विषय है । [भाध्यकार के विविध कथन का अन्य अभिप्राय ] भयवा भाष्यकार में उक्त योनों बच्चों का अभिप्राय इसप्रकार प्रक्षगत किया था सकता है कि पूर्ववचन आचार्य ने यह बताया है कि द्रव्याथिक और पर्यायायिक दोनों वस्तुजन्य अध्ययसायमूलक व्यवहार के जनक है। अर्थाय वम्याथिक मे नाम-स्थापना-अध्यात्मक परसु का अनारोपात्मक मित्रयो करामाधारमना वस्तका व्यवहार होता है। पपीयामिकनयस नाव का अनारोवारमकाध्यबसाय होकर भावपमधार का उबमहोता और वित्तीयवचन से यह बताया गया है कि प्रध्यापिकनय नाम-स्थापना-वय और भाव इन चारों से होनेवाले व्यवहार का जनक है। अन्तर इतना है कि नाम-स्थापना प्रष्य का व्यवसार उनके आरोपानात्मक सम से होता है और मास्यवहार मात्र के प्रारोपाएमक ज्ञान से होता है। क्योंकि द्रव्यायिकको दृष्टि में भाषका वास्तवन अस्तित्व नहीं है अतः वह आरोपित हो भाव का प्राहक होता है। पर्यायाचिकनय साब के भनारापारमा जान से भावमात्र ध्यपहारका कारण होता है। इसप्रकार बिद्वानों को प्राचार्य के दोनों पचनों के अभिप्रायमेव का अनुसरधान कर लेना चाहिये। मि:क्षेपसम्बन्धी प्रयोग का निष्कर्ष महाते हुये व्याख्याकार का कहना है कि-"किस विद्वान ने निक्षेप को अवगत कर लिया है उसे मोहप का परिवार प्रति मिशेपमेव को दृष्टि में रखे विमा
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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