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टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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में नील और घट में द्वन्द्व समास होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि नील पब से प्रतिपाद्य यत्किश्चित् नील पट आदि में घट प्रतिपाद्य सामान्य का भेद है, एवं घट पद से प्रतिपाद्य परिकश्चित पीत घट आदि में नील पट के प्रतिपाद्य सामान्य का भेद है, अतः 'नौल घटयोरभेदः' में नील और घट में द्वन्द्व की उपपत्ति के लिए उनमें अभव मिश्रित भेद मानना नियुक्तिक है। द्वन्द्र का उक्त नियामक मानने पर एक घट के अभिप्राय से प्रयुक्त दो घट पदों में इन्द्र की भी प्रापत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि एक घट पद से प्रतिपात्र में अन्य घट पद के प्रतिपाद्य सामान्य का भेद नहीं है । और न एक घट पद से होने वाले ज्ञान को विषयिता में अन्य घट पद से होने वाले ज्ञान की विषयितासामान्य का भेद हो है । द्वन्द्व के उक्त नियामकों में दूसरे नियामक के कारण हो मेयवत और अभिधेयक्त के बोधक तद् पद में स च स च, तो इस प्रकार के द्वन्द्व में कोई बाधा नहीं होती, किन्तु पदार्थ भेन या पदाथना सोकाको सन्दका शिसापक मानने पर यह द्वन्द्व बाधित हो जाता है क्योंकि मेयवत के बोधक तव पद और अभिधेययत के बोधक तत् पद के पदार्थ और पदार्थतावच्छेवक किसी में भेद नहीं है"
[ पूर्व पक्षी कल्पित द्वन्द्वनियामक में दोषोद्भावन ] किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि विषयिता को ज्ञानस्वरूप मानने पर ज्ञान का प्रमेय होने पर विषविता का भी प्रभेद होने से एक घट पद के अभिप्राय से प्रयुक्त दो घट पदों में इन्द्र की मापत्ति का परिहार नहीं हो सकता। क्योंकि मिन घट पदों से होने वाले ज्ञानों में व्यक्तिगत रूप से भेद होने से इनकी विषयिताओं में भी व्यक्तिगत भेद होने के कारण एक घट पर जन्य ज्ञाम को विषयिता में मपर घट पद अन्य ज्ञान को विषयिता का भेद निर्विवाद है । इसके अतिरिक्त तत् पर और इवम् पद में द्वन्द्व समास की अनुपपत्ति होगी क्योंकि तत् पद और इदम् पद से तद् व्यक्ति की हो उपस्थिति होती है। क्योंकि बादी को व्यक्ति से अतिरिक्त रूप में तत्ता और इदन्ता स्वीकार नहीं है। तस् पवार्य और इवम् पदार्थ में मेव न होने पर भी तव पद का प्रयोग संस्कार जन्य ज्ञान और इवम पद का प्रयोग प्रत्यक्षज्ञान के आधार पर होता है। और यदि विषय का भेद न होने पर भी मानविषपिता में भेद माना जायगा और उसके बल से व्यक्ति के बोधक तत् पर और इदम् पद में द्वन्द्व की उपपत्ति की जायगी तो ज्ञान के साकारवाद की आपत्ति होगी जिसके फलस्वरूप विषय के प्रभाव में विभिन्नाकार नान सम्भव होने से विषय का उच्छेद हो जायगा। यह सब दोष उक्त द्वन्द्व नियामकों के सन्दर्भ में सूक्ष्मता से विधारणीय है।
[द्रव्यपर्याय में वास्तव भेद न होने की शंका का निवारण ] कुछ लोगों का यह मत है कि-'द्रव्य और पर्याय में वास्तव में अभेद हो है, किन्तु उनके संख्या और संज्ञा प्रादि कार्यों में भेद होने से उनमें भेद अस्वाभाविक है-किन्तु यह मत समीचीन नहीं है, मयोंकि मेद को अस्वाभाविक मान लेने पर संख्या आदि की मान्यता निराधार हो जायगी। यतः द्वित्व त्रित्व आदि संख्याएँ वस्तुतः भिन्न पदार्थों में ही आश्रित होती हैं । दूसरी बात यह है कि वृध्य और पर्याय में मेद की प्रमात्मक बुद्धि होती है, अतः उसे अवास्तव कहना मसंगत है। द्वन्द्व में दोनों पदार्थों के प्राधान्यानुभव के विरोध को आपत्ति दी गयी थी यह उचित नहीं है क्योंकि प्राधान्य और अप्राधान्य पदार्प न होकर आभिमानिक है। इस विषय का विस्तार से विवेचन अन्यत्र किया गया है ॥ ३२ ॥