SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ [ शास्त्रवा० स्त० ७ श्लो० ३३ होगी क्योंकि रूपत्व और रसवत्व प्रकारक रूपं रसाश्च' इस बुद्धि को विषयता विश्व के गौण व्यवहार का निमित्त है । अतः जैसे 'रूपरसवतोः' में द्विवचन से द्वित्व का बोष होता है उसी प्रकार रूप-रसवान् द्वौ' में द्विशब्द से रूपत्व और रसत्यावच्छिन्न में द्वित्व की प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं है । इस आपत्ति के साथ ही दूसरी प्रापत्ति यह है कि 'घटो' यह एकशेष उपपन्न न हो सकेगा क्योंकि घटत्वमात्रप्रकारकबुद्धि विषयता द्वित्व के गौण व्यवहार का निमित्त नहीं होती। प्रतः घटस्वावसछेवेन द्वित्व की पर्याप्ति न होने से घटत्वमात्रावच्छिन्न में हित्व के बोधक घटौ' इस एकशेष को उपपत्ति सम्भव नहीं है और यदि घटत्व को द्वित्व का प्रयच्छेवक माना जयगा तो जैसे दो घट में 'घटी' एकशेष से द्वित्व का बोध होता है उसो प्रकार 'घटः द्वौं' इस वाक्य से भी घटत्वावच्छेदेन द्वित्व का मोष सम्भव होने से यह वाक्य भी प्रमाण हो जायगा। [ द्वन्द्वसमास पदार्थभेदनियत मानना होगा ] उक्त के अतिरिक्त यह ज्ञातव्य है कि इन्च समास पदार्थभेव में नियत है, अतः नौल और घट में अभेद मिश्रित भेव मानना आवश्यक है क्योंकि मेद माने विना 'नील-घटयोः' इस प्रकार नील और घद में द्वन्ध नहीं हो सकता। इस सम्बन्ध में यह कहना कि- 'द्वन्द्व समास पदार्थभेद में नियत नहीं है किन्तु प्रतिपाद्य भेव में नियत है और प्रतिपाद्य पदार्थ भी होता है तथा पदार्थतावच्छेरक भी होता है इसके अनुसार हो कहीं पदार्थभेद में इन्द्व होता है और कहीं पदार्थतावच्छेदक भेद में द्वन्न होता है। 'नीलघटयोरमेवः' में पदार्थतावच्छेवक भेद में द्वन्द्व समास होता है"-यह ठोक नहीं है, क्योंकि एक एट के अभिप्राय से दो घट पदों का प्रयोग करने पर मो तुन्द्व की आपत्ति होगी, फलतः एक घट की विवक्षा से 'घटौ' इस प्रयोग का भी औचित्य होने लगेगा क्योंकि यहाँ पर मी घट पद के प्रतिपाद्य घट और घटस्व में भेद है। अथैकपदप्रतिपाद्यत्वसामानाधिकरण्येनायरप्रतिपाद्ययावच्छिनभेदे एकपदजन्यप्रतिपत्तिविषयितात्यसामानाधिकरण्येनापरपदजन्यप्रतिपत्तिविषयितालावच्छिन्नभेदे वा द्वन्द्वः, इत्थमेव मेयवदभिधेयवद्बोधकतदादिपदद्वन्द्वानपवाद इति चेत् ! न, विषयिताया ज्ञानस्वरूपन्वे तदभेदे तदभेदात , तद्-इदम्-पदाभ्यो द्वन्द्वातुपपत्तेश्च, ताभ्यां तद्वयक्तेरेवोपस्थापनात् , तत्तेदंतयोः परेण व्यक्त्यतिरिक्तयोरनभ्युपगमात् , संस्कारज-प्रत्यक्षज्ञानाभ्यामेव तदिदंपदोल्लेखसमर्थनात् । यदि च विषयाऽभेदेऽपि ज्ञानविषयताभेदः, तदा साकारवादापत्तिरित्यादि सूक्ष्ममीक्षणीयम् , भेदस्याऽस्वाभाविकल्वे संख्यादीनां निरालम्पनत्वप्रसङ्गात् , प्रमीयमाणन्वेनाऽवास्तवत्वाऽयोगाच्च । प्राधान्यमद्राधान्यं पुनराभिमानिकमेव । इति विचामन्यत्र ॥ ३३ ॥ [द्वन्द्वसमास में विलक्षणरीति से नियामक की शंका ] यदि यह कहा जाय कि-एक पद से प्रतिपाझ यत्किश्चिद् व्यक्ति में अपर पद से प्रतिपाय सामान्य का भेव, तथा एक पद से होने वाले ज्ञान को यस्किश्विद् विषयिता में अन्य पद से होने वाले . शान की विषयितासामान्य का भेद, द्वन्द्व समास का नियामक है। ऐसा मानने पर गोल घटयोरमे।'
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy