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स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
नौल-अभेद के समान नील-भेद भी मानना ही होगा, अन्यथा उनमें द्वन्द्व न हो सकेगा। आशय यह है कि यदि नील और घट में केवल भेव होगा तो 'नील-घटयोः प्रभवः' इस प्रकार दोनों में अभेव की उक्ति प्रसंगस होगी और यदि बोनों में अभेव ही होगा तो 'नीलघटयोः' इस द्वन्तु की अनुपपत्ति होगी। इतना ही नहीं किन्तु यह भी ज्ञातव्य है कि नील और घट में भेद का बोध माने विना उक्त प्रयोग में 'नील-घट' शब्द से द्विवचन विभक्ति की भी उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि द्विरव भेदण्याप्य होता है।
[विलक्षण द्वित्व भेदव्याप्य न होने की शंका का निरसन ] यदि यह वहा जाय कि “जसे 'षडेव पदार्थाः' में घट शब्द से बदत्व संख्या का बोध नहीं होता है क्योंकि गुण आदि पदार्थों में संख्या नहीं रहती किन्तु द्रव्यत्व गुणत्व आदि विभिन्न धर्मप्रकारक 'द्रव्यं गुण:'....इत्यादि बद्धि को विषयतारूप बदत्व का ही बोध होता है. उसी प्रकार 'नोलघटयो:' में नील और घर में नीलत्व और घटत्वरूप भिन्नधमप्रकारक बद्धि को विषयता रूप द्वित्व का हो बोध होता है, और यह हिमलाल नहीं "जो मह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि द्विवचन विभक्ति से मुख्य वित्व का हो बोध होता है जो भेद का व्याप्य होता है । 'एकः द्वौं' इस प्रतीति का प्रभाव तो एकत्वावच्छिन्न में विश्व को विवक्षा न होने से ही उपपन्न होता है, अतः यह नहीं कहा जा सकता कि एक मैं भी मुख्य विश्व के रहने से 'एकः द्वौ' इस प्रतीति का अभाव नहीं होना चाहिये । वास्तव में विचित्रनय की विवक्षा से अर्थात एक में द्विस्व की प्राश्रयता मताने की इच्छा होने पर 'एकः द्वौ' इस प्रयोग में द्वित्व की प्रतीति होती ही है। केवल उसके अवच्छेवक रूप में एकत्व विवक्षित नहीं रहता, किन्तु एफ में भी द्वित्वाषच्छेवेन द्वित्व के रहने से उसको प्रतीति में कोई बाधा नहीं हो सकती। ___"यद्यद्धर्मप्रकारकयुद्धिविषयत्वं गोणीकृतद्वित्वादिव्यवहारनिमित्तं तत्तद्धविच्छेदेन पर्याप्तम् , तेन ‘एको द्रौ' इत्यादेव्यु दासः" इत्येकान्तम्तु न शोभते, 'रूप-रसवतोरभेदः' इतिवत् 'रूप-रसवान द्वो' इत्यस्य प्रसङ्गात , अप्रसङ्गाच 'घदों' इत्येकशेषस्य । तत्र घटत्वादेदिखावच्छेदकत्वेऽन्यत्राप्येकत्र घटत्वेन द्वित्वयोधस्य प्रमाणत्वापत्तः । किञ्च, पदार्थभेदनियतत्यादपि द्वन्द्वस्य नील बटयोरभेदसंबलितो भेदः। 'प्रतिपाद्यभेदनियतत्वमेव तस्य, क्वचित पदार्थभेदे, क्वचित् पदार्थतापच्छेदकभेदे तन्प्रवृोः' इति त्वेकवटाभिप्रायकवटपदद्वयेऽपि द्वन्द्वापत्तन शोभते ।
[एकान्तबादी को 'रूप-रसवान द्वो इस प्रयोग की आपत्ति ] एकान्तवादी का यह कहना है कि-"एकः द्वौ' इस प्रयोग के न होने का अन्य कारण है, वह यह कि यद्-यत्-धर्मप्रकारक बुद्धि को विषयता द्वित्व आदि के गौण व्यवहार का निमित्त होती है तत-तत्धर्मावच्छेदेनेव द्वित्व की पर्याप्ति होती है । यतः एकत्वप्रकारकबुद्धिविषयत्व द्वित्व ध्यवहार का निमित्त नहीं है अतः एकत्वावच्छिन्न में द्वित्व की पर्याप्ति न होने से 'एकः द्वौ' यह प्रतीति अथवा प्रयोग नहीं होता"-किन्तु यह कथन शोभास्पद नहीं है क्योंकि उक्त राति से द्वित्व की पर्याप्ति मानने पर जैसे 'रूप-रसयतोरभेदः' प्रयोग होता है उसी प्रकार 'रूप-रसवान् द्वौ' इस प्रयोग की मो आपत्ति