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________________ २१४ | शास्त्रवा०ि स्त०७ श्लो० ३३ । विभिन्न धर्मावच्छेदेन नील मेद का अभाव रह सकता है, क्योंकि सद्धर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक भेद और उसका प्रभाव विरुद्ध अधिकरणतावच्छेदक द्वारा ही रहते हैं। यह नियम असिद्ध है । यहाँ विरुद्ध अधिकरणतावच्छेदक द्वारा ऐसा न कह कर विभिन्न अधिकरणतावच्छेदक द्वारा कहने मे लाधव है । यह बात भी नयविशेष के अनुरूप होने से शुद्ध है अतः हम उसे मान्यता प्रदान करते हैं । अपि च, 'नील-घटयोरभेदः' इत्यादिप्रयोग एवं भेदाभेदाभ्युपगम विना न सुघटः, चार्थे द्वन्द्वानुशासनान, भेदस्य च चार्थत्वात् । अथ द्वन्द्वे न भेदस्य संसगतया प्रकारतया वा भानम् , द्वन्द्वस्य परस्पगनन्वितपदार्थबोधकत्वात | "चैत्र-चैत्रपुत्री' इत्यादी द्वितीयस्यैव चैत्रपदस्य स्वार्थसंसगंधीजनकत्वात, नामार्थयोर्मेदनाऽनन्वयात, द्वयोः प्राधान्यानुभव विरोधाच्चेति चेत् ? न, द्वन्द्वे भेदाऽभानेश्मेदभ्रमाद्यनिवृत्तिप्रसङ्गात् , भिन्नतया भानादेव द्वयोः प्राधान्यानुभवाच्च । किश्च, भेदं विना द्विवचनानुपपत्तिः, द्वित्वस्य भेदनियतत्वात् । न च पडेव पदार्थाः' इत्यादी षट्त्वादिवत्र विभिन्नधर्मग्रकारकबुद्धिविषयत्वरूपं द्वित्वं, तच्च प्रकृते न भेदनियतमिति वाच्यम्, द्विवचनाद् निरुपचरितस्यैव द्वित्वस्य प्रतीरीः, 'एकोही इत्यतीत देशपावनि छ। द्वित्वाऽविवक्षयकोषपत्तेः । विचित्रनयविवक्षया तु तत्र द्वित्वतो द्वित्वादिकं प्रतीयत एवं | यह भी ज्ञातव्य है कि-'यदि भेदाभेद न माना जायगा तो 'नील घटयोः अभेदः' इस प्रयोग की उपपत्ति न होगी क्योंकि थार्थ में ( च शब्द के अर्थ में ) द्वन्द्व समास का विधान है और भेद ही वार्य है, अतः यदि नील और घट में केवल प्रभेद ही होगा तो नील और घर का द्वन्द्व समास नहीं हो सकता है। [द्वन्द्व समास में भेदभान के निरसन का प्रयास ] यदि यह कहा जाय कि-'द्वन्द्व में भेद का संस गैरूप अथवा प्रकार रूप में भान नहीं हो सकता क्योंकि द्वन्द्व समास परस्पर में अनन्वित पदार्थ का बोधक होता है और यदि भेद का संसर्ग रूप में या प्रकार रूप में भान माना जायगा तो एक पदार्थ दूसरे पदार्थ से अन्वित हो जायगा । 'चैत्र-चैत्रपुत्रों से प्रथम चैत्रपद के अर्थ का चैत्रपुत्र पदार्थ में अन्वय नहीं होता है किन्तु दूसरे पक्ष के अर्थ का पुत्रत्व में निरूपितस्य संसर्ग का बोध होता है। उस बोध में यह शङ्का नहीं हो सकती कि- 'पुत्रत्व में चैत्र का निरूपितत्त्व सम्बन्ध से प्रत्यय सम्भव नहीं है क्योंकि दो नामाथी का भेद सम्बन्ध से अर्थात् अभेदान्य सम्बन्ध से अन्क्य मान्य है। द्वन्द्व में भेव का भान मानने में यह भी बाधा है कि यदि द्वन्द्व में एक पदार्थ तसरे पदार्थ में भेद सम्बन्ध से अन्वय अथवा भदरा विशेषण होगा तो द्वन्द्व में दोनों पदाथों के सर्वमान्य प्रधान्यानुभव का विरोध होगा। प्रतः द्वन्द्व में भेद का भान सम्भव न होने से यह कहना कि भेदाभेद का अभ्युपगम किए विना 'नील-घटयोः प्रभवः' यह प्रयोग अनुसंपन्न है, ठीक नहीं है" [ द्वन्द्व समास में भेद का मान न मानने में आपत्ति ] किन्तु यह कथन उचित नहीं है क्योंकि द्वन्तु में भेद का भान न मानने पर अभेदभ्रम प्रादि की निवृत्ति न हो सकेगी। और जो द्वन्द्व में दोनों पदार्थों में प्राधान्य के अनुभव की बात कही गयी है वह भी तभी हो सकती है जब दोनों पदार्थों का भिन्नरूप में मान हो । अतः सिद्ध है कि घट में
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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