________________
२१८
[ शास्त्रवार्ताः स्त.. श्लो. ३४-३५
तदिदमखिलमभिल्योपसंहरबाहमूलम्-एवंन्यायाऽविरुद्धऽस्मिन् विरोधोद्रायन नृणाम् ।
__ व्यसनं वा जडत्वं वा प्रकाशयति केवलम् ॥ ३४ ॥ एवम्-उक्तदिशा न्यायाविरुद्ध प्रमाणाऽप्रतिषिद्धे अस्मिन्-भेदाभेदे, तृणां तार्किकपुरुषाणां, विरोधोद्भाधनम् "विरुद्धौ भेदा-उमेदो नैकत्र संभवतः' इत्यभिधानम् , व्यसनं जानतामप्यभिनिवेशेन स्याद्वादमात्सर्यधीः. जडत्वं वा-सूक्ष्मार्थानुलोक्षित्वलक्षणं घुद्धिमान्धं वा केवलं प्रकाशयति, तत्कार्यत्वादस्य वस्तुतो विरोधाऽसिद्धेः ।। ३४ ॥
[ भेदाभेद में विरोध उठाना जड़ता का प्रदर्शन ] उक्त सभी बातों को दृष्टि में रखते हुए कारिका ३४ में उक्त विचार का उपसंहार किया गया है. कारिका का अर्थ इस प्रकार है-वस्तु का भेदाभेद ऐसा तथ्य है जिसमें न्याय का कोई विरोध नहीं है । इस तथ्य के विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं है फिर भी ताफिक पुरुष इस तथ्य के सम्बन्ध में विरोध का उभावन करते हैं, उनका कहना है कि भेव और अमेव में परस्पर विरोष है अत एव उन दोनों का किसी एक वस्तु में समावेश सम्भव नहीं है। प्रस्थकार का कहना है कि ताकिक पुरुषों के इस फथन से केवल उनके व्यसन अथवा जड़ता को अभिव्यक्ति होती है, उनके कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि वे तथ्य को जानते हुए भी अभिनिवेशयश स्यादवाद को मान्यता के प्रति द्वेष रखते हैं, मथवा उनके कयन से ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी बुद्धि मन्द है-वे सूक्ष्म वस्तु नहीं समझ सकते हैं, क्योंकि इस प्रकार का कयन ध्यसन और जड़ता का ही सूचक हो सकता है। सच बात यह है कि मेव और अभेद में परस्पर विरोध नितान्त अप्रसिद्ध है ।। ३४॥
एतदेव स्पष्टयतिमूलम्--न्यायात्खलु विरोधो यः स विरोध इहोच्यते ।
____यवेकान्तभेदावी तयोरेवाऽप्रसिद्धितः ॥ ३५ ॥ न्यायात प्रमाणात् यः खलु विरोधः अनुभवबाधलक्षणः, स इह-प्रकृतविचारे विरोध उच्यते लोकेन, नाऽन्यः । किंवत् ? इत्याह-यवत-यथा 'एकान्तभेदादावभ्युपगम्यमाने' इति शेषः, तयोरेष-द्रव्य-पर्याययोरेव, अप्रसिद्धितः स्वरसोदयदनुभवाऽनुपपत्तेः॥३५॥
{ एकान्त मेद और अभेद में विरोध संगत ] कारिका ३५ में पूर्व कारिका के ही वक्तव्य को स्पष्ट किया गया है, कारिका का अर्थ यह है-जो विरोध यानी अनुमवबाप न्यायानुमत न्यायसम्मत होता है, वस्तुतत्त्व के विचार में उसी का उद्धापन किया जाता है जैसा कि एकान्त मेद किंवा एकान्त अभेद मानने पर द्रव्य और पर्याय की प्रसिद्धि-अर्यात सहज अनुभूति का उपपावन न होने से सम्भव होता है ॥ ३५ ॥