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________________ ११६ [ शाल० लो० १६ सो जनके लिये घट सहकारी को कल्पना निरर्थक है और यदि वह स्वयं समर्थ नहीं है तो घट रूप एक सहकारी के सविधान से उनमें विभिन्न कार्यों को उत्पादकता युक्तिसंगत नहीं हो सकती । यह कहा जाये fie - "एक सहकारी के निधन से विभिउपादानोपकार द्वारा विभिन्न कार्यों का उदय बेअर आता है, अत एवं विभिन्न कार्यों के उदय के प्रति विभिन्न उपादान कारणों के एक सहकारी की कल्पना स्वीकार की जा सकती है।" यह ठीक नहीं है क्योंकि विभिस्रोपाज्ञान सार से जो विभिावान कार्यों का जन्म होता है यह विभिन्न कार्यों के उत्पत्ति प्रयोजक विभिन्न स्वभावोपेत एक सहकारीनिमितक है, यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो विभिन्न कार्यों के प्रति विभिन्न उपाशन कारणों का जो सहकारी स्वीकार करना है उसे एक व्यक्ति रूप मानत्रा विरु होगा। इस सच को गनेकान्तजयपताकादि ग्रन्थों में मूलग्रन्थकार श्री हरिभद्रसूरिजी ने वो कारि कामों से स्वयं प्रतिपादित किया है। कारिकाओं का अर्थ इस प्रकार है कि- 4 (१) बोद्ध मत में कारण जिस स्वभाव से एक कार्य का जनक होता है उस स्वभाव से अश्य कार्य का अक नहीं होता है। क्योंकि कार्य का मूलभावरच उत्पथिकस कृरस्न कारण के अधीन होता है जो कार्य जिस कारण से उत्पन्न होता है उस कार्य को उत्पत्ति में वह कारण करन यानी समरूप से विनियुक्त हो जाता है। फलतः कारण एक कार्य के उत्पादन में सम से विनियुक्त हो जाने से उसले कार्यान्तर की सम्पति नहीं हो सकती। जैसे जिस मिट्टी से कोई घट उत्पन्न होता है वह मिट्टोपित करनरूप से उस घट के उत्पादन में हो विनियुक्त हो जाता है । अतः उस मिट्टीपि से प्रश्य मृत्पात्र को उत्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार यह स्थिति स्पष्ट है कि जिस कार्य के प्रति जो स्वरूप कारण होता है उससे उस एक ही कार्य की उत्पत्ति होती है - कामन्सिर की नहीं। बौद्ध की इस मान्यता के रहते हुये भी इस मान्यता का अनेकान्ताब स्वीकार में पर्यव साम विखाने के लिए दूसरो कारिका में पत्थकार का यह कहना है कि (२) यदि एक वस्तु को एवंविध और अत्यधि अर्थात् विभिन्न स्वनाथांपेल माना जरब और उस एक-एक स्वभाव से विभिन्न कार्य के प्रति उसे कारण माना जाय तो उस वस्तु था जो स्वभाव प्रथम कार्य के प्रति जनक है वह स्वभाव उस का समय से जनक है और जो स्वभाषासर है वह कार्यान्सरका जनक है ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है। इस प्रकार वस्तु को एकामेक स्वभाव मानने पर कोई बोष रष्टिगोचर नहीं होता । यह है कि घट भी जो शोकवासना और प्रमोदाविवासना का निमित्त होता है वह एक से नहीं किन्तु स्वभावमेव से होता है । और वह स्वभावमेव व्यउत्पामाथि शक्तिनेदाथीम है। आशय यह है कि घट में विनाश और उत्पाद दोनों को शक्ति है। विनाशक्ति से बह विनाशस्वभाव को और उत्पात से वह उत्पाद स्वभाव को प्राप्त करता है। विनाश स्वभाव से अर्थात् विनाशोपेतस्यरूप से वह घटार्थी की करेकवासमा का जनक है और उत्पादस्वभाव- उत्पा भोपेतस्यरूप से पटार्थों को प्रमोदवासना का जनक है। यह भी है कि एक घटना से अनेक घटार्थों को एक साथ जो शोकोत्वति होती है उसमें भी घटनाश एक स्वभाव से जनक न होकर स्वभावभेव से जनक होता है और वह स्वभावद है विभिन घटार्थो के समनन्तरज्ञानक्षणरूप विभिन्न उपादानों के साथ सम्बन्ध की निमितरूप । आशय यह है कि यद्यपि घटना एक है किन्तु वह विभिन्न उपायामों के साथ सम्यन्धका निमित है, 8
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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