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________________ [ शास्त्रवार्ता स्त०७ श्लो. ४ वृद्धि की आपत्ति अनिवार्य होगी। इस युक्ति से यह भो कथन निरस्त हो जाता है कि-दो तव्यों का परस्पर सम्पर्क होने पर एक के द्वारा अन्य के गुण की निवृत्ति हो जाती है क्योंकि ऐसा मानने पर कफ और पित्त में से किसी एक की वृद्धि का दोष अवश्य होगा और उसके साथ ही उक्त बात अनुभव विरुद्ध भी है क्योंकि दोनों द्रव्य का योग होने पर दोनों के रस को अनुमति निर्विवाद है। [ अनेकानावाद में साकार्य का आपादन] यदि यह कहा जाय कि-'गुड़ और सोंठ के योग से किसी एक अन्य द्रव्य की उत्पत्ति नहीं। हो सकती, क्योंकि विजातीय दो दृष्य किसी अन्य विलक्षण द्रव्य के उत्पादक नहीं होते और नवे अपनी जातियों के प्राश्रयभूत ही किसी द्रव्य को उत्पन्न करते हैं। अतः यह नहीं माना जा सकता कि-'गुड़ और सोंठ के योग से गुड़-सोंठ उभयात्मक द्रव्य की उत्पत्ति होती है क्योंकि ऐसा मानने पर उस द्रव्य में गुड़त्व और शुण्ठीश्व का सांकर्य हो जायगा किन्तु होता यह है कि जैसे कारण विशेष से गुट और सोंठ का योग होने पर उनमें विशेष रस की उत्पत्ति हो जाती है उसी प्रकार गुड़ और सोंठ, उभय के योग से धातुओं में साम्य हो जाने से गुण और दोष को निवृत्ति हो जाती हैतो यह ठीक नहीं है पयोंकि गुड और सोंठ का योग होने पर एकात्मना परिणत रूप में हो उनकी उपलब्धि होती है। और साथ ही साथ यह मी ज्ञातव्य है कि पातु साम्य में जैसे रसविशेष प्रयोजक होता है उसी प्रकार तव्यविशेष भी प्रयोजक होता है। अत: यह स्वीकार करना समीचीन नहीं है कि-'गुड़ और सोंठ का योग होने पर विशेष रस से युक्त एक विशेष द्रव्य की उस्पत्ति होती है। क्योंकि द्रव्य आदि के वैचित्र्य से हो आहार को परिणति में वैचित्र्य होता है। [अनेकान्तबाद में संकीणवस्तु का स्वीकार ] गुड़ और सोंठ के योग से गुड़-सोंठ उभयात्मक द्रव्य की उत्पत्ति मानने पर ओ सायं बताया गया वह अनेकान्त पक्ष में सम्भव नहीं है क्योंकि इस पक्ष में वस्तु का सङ्कीर्ण स्वभाव मान्य होने से साडूर्य को दोषरूपता अमान्य है। साथ ही साथ यह ज्ञातव्य है कि जैसे नरसिंह उभयात्मक शरीर में नसिहत्व की उपपत्ति होती है उसी प्रकार गुञ्ज-सोंठ उभयात्मक द्रव्य में गुड़ शुष्ठीत्व को उपपत्ति हो सकती है। यदि यह कहा जाय कि- मिलित गुड़ और सोंठ अमिलित गुड़ और सोंठ से मिन्न एक अतिरिक्त द्रव्य है जिसका एक अतिरिक्त स्वभाव है न कि परस्पर व्याप्त हो कर स्थित उभयस्वभावात्मक अन्यजातीय बस्तु है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि मिलित गुड़ और सोंठ को यदि द्रव्यान्तर माना जायगा तो उसमें गुड़ और सोंठ के विलक्षण माधुर्य और कटुता के अनुभव की आपत्ति होगी, और यदि उसे एक स्वभाव माना जायगा तो वह कफ और पित्त को वृद्धिरूप दोषद्वय की निवृत्ति का हेतु न हो सकेगा। और यदि दोषद्वय की निवृत्तिद्वय के जनम में समय एक स्वभाव से युक्त होगा तो इस स्वभाव के अनेकत्व घटित होने से उसकी सर्वथा एकरूपता न हो सकेगी। एक शक्ति से दो कार्य को उपपत्ति मानने में प्रतिप्रसक्ति भी होगी। साथ ही एक स्वभाव मान्य भी नहीं हो सकता क्योंकि विभिन्न स्वभाव का अनुभव सर्वसम्मत है। इसलिए यही मानना उचित होगा कि गुड़ और सोंठ का योग होने पर दोनों की मधुरता और कटता का परस्परानुवेध होने से हो उभय दोष की निवृत्ति होती है। ननु जात्यन्तरत्वेऽपि प्रत्येकदोपनिवृत्तिरिति न नियमः, पृथक् स्निग्धोष्णयोः कफपित्तकारित्ववत् समुदितस्निग्धोष्णस्यापि माषस्य तथात्वादिति चेत् ? न, माषे स्निग्धोष्णत्व
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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