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________________ स्था० कटीका एव हिन्दी विधेचन ) अन्यथानुपपत्ति रूप बल से वस्तु को नित्यानित्यरूपता और सद् असत आदि रूपता जो जैन विद्वानों को मान्य है उसकी सिद्धि होती है। फलतः उक्त विचारों के निष्कर्ष रूप में वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निर्णय करने में समर्थ स्याद्वाव सिद्ध होता है। इसके एक अंश को लेकर ही परस्पर निरपेक्ष अन्य प्रगणित सिद्धान्तों को प्रवृत्ति होती है। यही बात सम्मसि प्रकरण की 'जाब इआ वयणपहा' प्रादि १४४वीं गाया में कही गयी है। गाथा का अथ इस प्रकार है वचन के जितने पथ होते है अर्थात जितने निश्रय वक्ता के विकल्प-- वैमत्व के हेतु होते हैं उत्तने ही नयवाद होते हैं. अर्थात् उतने ही वक्ता के तन्मूलक शब्दात्मक विकल्प होते हैं, क्योंकि नम के सामान्य रूप से नैगम-संग्रह आदि सात ही भेद का प्रतिपादन होने पर भी प्रतिष्यक्ति उनको संख्या अनन्त होती है। और जितने नयघाव होते हैं उतने ही अन्य मत वादियों के सिद्धान्त होते हैं क्योंकि वे वक्ता के निरपेक्ष विकल्पमात्र से कल्पित होते हैं। तथाहि-कापिलं दर्शनं निरपेक्षद्रव्यार्थिकनय विकल्पप्रमतम् , यौडदर्शनं च निरपेक्षशुद्धपर्यायास्तिकनयविकल्पजनितम् , द्वाभ्यामपि च परस्परनिरपेक्षाभ्यां द्रव्यार्थिक-पर्यायाबिकाभ्यां प्रणीतमौलूक्यदर्शनम् । तदाह-[ सम्मति० ३१४५-४६ ] *ज काविलं दरिसणं एवं दवष्टिअस्स बत्तव्वं । सुद्धोअणतणयस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्यो ॥१॥ दोहिं वि णएहिणीशं सत्थमुलूगण, तहवि मिच्छतं । जं सविसयपहाणत्तरगेण अन्नुन्नणिरवेक्खं ॥२॥ एवमौपनिषददर्शनादीनामपि संग्रहनयादेः प्रादुर्भू तिर्भास्नीया। कपिल का साहयदर्शन निरपेक्षमूख्याथिकनय के विकल्प से उदगत है। बौद्ध दर्शन निरपेक्ष शुद्ध पर्यायास्तिक नय के विकल्प से उत्पन्न है। और उलक का वैशेषिक दर्शन परस्पर निरपेक्ष द्रध्याथिक और पर्यायायिक नयों से प्रादुर्भूत है। यही बात सम्मतिप्रकरण की 'जं कापिल' तथा 'दोहि वि' इत्यादि :४५, १४६वीं दो गाथाओं में कही गयो है जिनका अर्थ इस प्रकार है--कपिल का सल्यवर्शन अव्याथिकनय का प्रतिपाद्य है और शुद्धोदन के पुत्र बुद्ध का दर्शन शुद्ध पर्यायास्तिक मय का विषय है। उलक द्वारा रचित वैशेषिक दर्शन उक्त दोनों नयों से यद्यपि प्रादूर्भूत है तथापि यह भी मिथ्या है क्योंकि उसके मूलभूत दोनों नय अपने विषय का ही मुख्यरूप से प्रतिपादक होने से परस्पर निरपेक्ष है। इसी प्रकार संग्रह नय प्रादि से वेदान्त दर्शन आदि की उत्पत्ति ज्ञातव्य है । अत एव परदर्शनामिमतेऽर्थ स्यात्कारमात्रेण स्वावधारणसंभवाद् भवति साम्यसंपत्तिः स्याद्वादिनः कर्मदोषादज्ञाननिमम्नं परं पश्यतः । परेपा तु स्त्रपक्षसिद्भावन्योन्यं कलहाय* यत्कापिलं दर्शतमेतद् द्रव्याथिकस्य वक्तव्यम् । शुद्धोदनतनयस्य तु परिशुद्धः पर्यविकल्पः ।। द्वाभ्यामपि नयाभ्यां नीतं शास्त्रमुलूकेन तथापि मिथ्यात्वम्। यत् स्वविषयप्रधानत्वेनान्योन्यनिरपेक्षम् ।।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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