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स्वा०० टीला एवं हिन्दी विवेचन ]
"बोधात्मता च्छन्दस्य न स्थास्यथ तच्छ्र ुतिः । यद् चोद्धारं परित्यज्य न बोधोऽन्यत्र गच्छति ॥ १ ॥ न च स्यात्प्रत्ययो लोके यः श्रोत्रा न प्रतीयते । शब्दाऽभेदेन सत्येयं सर्वः स्यात्पर चित्तवित् ||२||" इति ।
अतः शब्दानुषिद्धः प्रत्ययो न जगतः शब्दमयत्ये साक्षी ! [ शब्दाद्वैतवाद का विस्तार से निराकरण ]
शास्त्री भर्तृहरि के इस मत की यहां समीक्षा की जाती है-दात्मक व्यवहार और प्रत्यथादि में जो शब्दानुवेध शावकों को श्रभिमत है वह विचार करने पर उपपन्न नहीं होता। वेध का अर्थ शब्दसंयोग अथवा शब्दसमवाय नहीं किया जा सकता। क्योंकि संयोग नियमत: में ही होता है। एवं समवाय भरे द्रव्यगुणाति का हो होता है ।
जैसे
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यदि यह कहा जाय कि 'नील घट में घटी नोलानुषिद्ध:' ऐसा व्यवहार होता है इस or में अनुषपद का प्रयोग तादात्म्य में होता है। प्रसः शब्द और प्रत्ययाति में जो शद । नुवेध बलाया गया है उसे गारद तादात्म्यरूप माना जा सकता है तो यह ठीक नहीं, क्योंकि प्रत्यय और शव में अस्प सामेव मानने पर प्रत्यय में शस्वतावरम्यरूप म्यानुवेध नहीं हो सकता क्योंकि अत्यस् भिल में साम्य नहीं होता, इसीलिये प्रामाणिक विद्वान् 'घटः घटानुषिः ऐसा प्रयोग नहीं करते ।
[ विवक्षा के अभाव से तथा प्रयोगाभाव की आशंका का निवारण ]
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यदि यह कहा जाय कि "अश्यन्त अभि में भी तादात्म्य होता है फिर भी जो 'बटो जानुषिद्ध: यह प्रशेष होता है किंतु 'घटो घटानुषिसः यह प्रयोग नहीं होता है उस का क्रम से कारण है (१) घट में नीलरूप से नील के तादात्म्य की विवक्षा और (२) घटरवरूप से घटला की अविवक्षा । यह उसीप्रकार सम्भव हैं जैसे कुण्डे में कुरूप का तथा कुण्ड का अश्यतामेव होने पर भी कुण्डस्वरूप में कुण्ड्यूसिव को विवक्षा होने से 'कुण्डे कुरूप यह प्रयोग होता है, किन्तु कुण्ड में कुण्डवृतित्व को शिक्षा न होने से 'कुकुण्डम्' यह प्रयोग नहीं होता" सो यह कयण मी ठीक नहीं है। क्योंकि उक्त रीति से बोध में शमयतावात्स्यरूप शब्दानुवेध की उपपति सम्भव होने पर भी शब्द मोर बोध में अत्यन्तादाम्य मानने पर शव्द जय होने से बोध में मी जडरव की आपति होगी। अथवा शब्द में बोधरूपता होने से ब्वाईतवाद की हानि होकर ज्ञानामधाव की आपत्ति होगी ।
[श्रवणभाव अथवा सर्वचज्ञता की आपत्ति ]
दूसरी बात यह है कि शब्द और घोष के ऐवयपक्ष में जैसे एक व्यक्ति को अन्यव्यक्ति के योभ का ज्ञान नहीं होता उसीप्रकार अन्य व्यक्ति के शब्द का श्रवण भी नहीं होगा। यदि होगा तो समस्त प्रमाता के बोध से अभिन्न शब्द का पहण होने से बिना किसी विशेष उपाय के ही सब मनुष्यों में सर्वलि के ज्ञान को आपत्ति होगी। जैसा कि समन्समय ने कहा है- यदि बोधात्मक क्योंकि शब्द मोधात्मक है और प्रत्ययमात्र शब्दरूपं ही है तो
होगा तो एक पुरुष के शब्द का अभ्यमुरुष को न हो सके
बोध बोढा शाता पुरुष को छोटकर अन्यत्र कहीं नहीं जाता। यदि
प्र.