________________
[ शास्त्रमा सलो . १३
[ शब्द और अर्थ में तादात्म्यसंबंध का समर्थन ] इस पाक के इस स्वभाव के कारण हो शव मौर अर्ष में ताबारम्य सम्बश्य होता है, अन्य को सम्मान्य नहीं होता। अयं घर:' इस प्रतीति में समर्थ में उस से भिन्न घटपद का सम्बरम प्रसीत नहीं होता शिन्त घरपद के अमेव का ही मान होता। इसप्रकार जान के समान समस्तव्यवहार भी शम्यानुषिद्ध ही वेखा जाता है, पोंकि 'भोक्ये' =भोजम करूंगा, बास्यामि = मान गा' इसप्रकार के शरट का जाय किये सिना कोई ही मनाय गोजम यामाहा में प्रवृत्त रही होता । एवं भुया-मोचन कर' हि याविवादों के उल्लेख किये बिना कोई भी मनुष्य किसी पाय मनुष्य को भी भोजन और दान में प्रवृत्त नहीं करता । जीवन और मरण का स्वरूपजान भी शाबायोन ही होता है। मनुष्म मुषप्तदशा में शम्ब का पहले नहीं करता अतः उस समय बह मृततुल्य होता है। सुप्तावस्था में भी मनुष्य जीवित रहता है इस बात का शान मुषुप्ति के बाव उस समय होता है जब वह शरव द्वारा अगाये जाने पर अतर्जस्यात्मक शब्य का प्रयोग करते हुये निव्रात्याग करता है। इसप्रकार उस के जीवन का जान भी सम्व से ही होता है।
[शब्दमात्र से प्रपंचमेद की उपपचि ] शम्यत्तस्व को अहम मानने पर यह पांकर हो सस्ती है ..“यदि एकमात्र शव हो तात्विक पदार्थ है उस से भिन्न नहीं है तो फिर अकेले उससे पाविर्भाव-तिरोभावा प्रपञ्च भेव की उपपत्ति नहीं हो सकती है। किन्तु मह शंका नहीं है पर्योकि जिस मनुष्य का नेत्र तिमिर रोग से ग्रस्त रहता है उसे जसे विशुद्ध प्रकाश में भी विभिन्न प्रकार की रेखाओं का अबभास होता है, उतीप्रकार अनादि अविशा से प्रस्त पित्त्याले मनु'य को प्रपञ्चभेट का प्रतिमास हो सकता है। जैसे तिमिररोग का विलय होने पर रेखाधि का वर्शन न होकर विशुद्ध आकाश का हो वन हाता है उसीप्रकार समस्त अघिद्या का विलय हो जामे पर शुद्ध पदब्रह्म का धर्मन हो सकता है। किन्तु यह पर्शन अभ्युदय और निःश्रेयस फल को देनेवाले धर्म के पनुष्ठान से जिस का अन्त:करण निमंल हो जाता है उन्हीं को प्रणव यानो ओंकार के रूप में प्राप्त होता है।
[शब्दाद्वैतवादनिराफरणम् ] गत्र च शब्दप्रत्ययादी को नाम शब्दानुवेधः परस्याभिमाः ? न नाम संयोगः समवायो चा, व्यपारेच संगोगात गुणादीनामेव च समवाया ।-'घटो नीलानुविद्धः' इत्यत्रय नादात्म्येऽनुवेधपदप्रयोग' इति घेत ? न, एकान्ताऽभेद तनुपपसेः । न हि घटी घटानुविद्धः' इति प्रयुअते प्रामागिका "विवक्षाऽनियमाचा तथाप्रयोगाऽप्रयोगोपपत्तिः, यथा 'कुण्डे कुण्डस्वरूपम्' इति प्रयोगः, न तु 'कुण्डे कुण्डम्' इनि" इति चेत् ? न, तथापि शब्दयोधयारकान्ततादात्म्य शब्दप जबत्वात् वीरपापि जडतापनी शब्दस्य बोधरूपत्वेन(व वयोधमाजवादापसेः। तथा चान्यस्याऽन्ययोधाऽयोद्धन्यबदन्यशब्दश्रोतन्यं न भवेत् । भावे बा सफलप्रमानवोघाभिमशब्दप्राहिलाद निरुपायं सर्वस्य सर्वचित्तविश्वं स्थान् । तथाच समन्तभद्रः१४ अप्टब्य स्तबक = को कारिका २-३, पृ० ६१ ६४ ।
----