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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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सकता है । सत्त्व एवं असत्त्व का अनुवाद करके उसमें घटत्व का विधान किया जाय अयवा घटत्व का अनुवाद करके सत्त्वाऽसत्त्व का विधान किया जाय । किन्तु ये दोनों ही पक्ष समाधीन नहीं है। क्योंकि यदि 'यत्सत्त्वं तद् घटावं' इसप्रकार सत्त्व का अनुवाद कर घटश्व का विधान किया जायगा तो सत्व में तादात्म्य से घटस्व की व्याप्तिका लाम होगा और तब सस्व के सर्वगत होने से तदात्मक घटक में सर्वगतत्व की प्रसक्ति होगी। और इसका अभ्युपगम नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस अभ्युपगम में पटावि में घटमेव के प्रतिभास का बाप होगा तथा पटावि में घटभिनवव्यवहार का लोप होगा। इसीप्रकार 'यवसत्त्वं तत् घटस्वम्' इसप्रकार असत्त्व का अनुवाद कर घटत्व का विवान किया आयगा तो असत्त्व में तादात्म्य से घटत्व की व्याप्ति का लाम होने से प्रागभावादिरूप चतुर्विध प्रभावात्मक पदार्थों में घटत्य का प्रसङ्ग होगा तथा, जैसे 'सत्त्व-असत्त्व' का अनुवाद कर घटत्व का विषान नहीं हो सकता वसीप्रकार 'पद् घटत्वम् तत् सत्त्वं प्रसवंवा' इसप्रकार घटस्वका अनुवाद कर सत्त्वाऽसत्त्व का भी विधान नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा मानने पर सस्य एवं असत्त्व घटत्वात्मक ही होगा अस एव घटमात्र में हो सत्त्याऽसत्त्व का पर्यवसान होने से घट भिन्न सत् और असद का अस्तित्व सम्भव न हो सकने से पटा और प्रागमाविमा पोसत होगी। इस का फल यह होगा कि सत्त्व प्रसत्व का घटत्व से ऐक्य हो जाने से विभिन्नरूपों से उपस्थित पदार्थों में तो विशेषण-विशेष्यभाव होता है' इस न्याय से घटत्व के साथ सत्त्वासत्त्वका ऐक्य होने पर सद पवार्य और घटपदार्थ में विशे
-विशेष्यभाय का लोप हो जाने से 'सन घट:' अथवा 'प्रसन घट: इस रूप से घट अवक्तव्य हो जायगा। किन्तु अनेकान्तपक्ष में घटत्व ही घट का स्वरूप और सस्व-असत्त्व ये दोनों पर रूप होने से घर में घटत्व रूप सत्त्व और सत्त्वाऽसत्त्वरूप से असरद रहता है, अतः इन सत्त्वाऽसत्वरूप दोनों धर्मों से घट को युगपद्विवक्षा को अपेक्षा से ही घट अवाच्य होगा। अतः अनेकान्त पक्ष में कोई दोष नहीं है।॥ १० ॥
___ यद्वा घटोऽर्थपर्यायः, स्वान्यत्राऽवृत्तः स्वं रूपं, 'घटः' इति नाम व्यञ्जनपर्यायस्तदतद्विषयत्वात् पररूपम् , ताभ्यां प्रथम-द्वितीयौ। अभेदेन ताभ्यां निर्देशेऽवक्तव्यः । यतोऽत्रापि यदि व्यञ्जनमनूध घटार्थपर्यायविधिः, तदा तस्याऽशेषघटान्मकतामसक्तिः, इति भेदनिवन्धनतळ्यवहारविलोपः । अथार्थपर्यायमनूध व्यञ्जनपर्यायविधिः, तथापि(तत्रापि)सिद्धविशेषानुवादेन घटत्वसामान्यस्य विधानादकायस्वादिप्रसङ्ग इति घटस्याभावादवाच्पः। अनेकान्तपक्षे तु युगपदभिधातुमशक्यत्वात्, कश्चिदवाच्यः ।
[११-अर्थपर्यायादिरूप से भंगत्रय का प्रतिपादन] अथवा यह कहा जा सकता है कि अर्थपर्यायात्मक घट का अर्थपर्याय स्वरूप है क्योंकि स्व से भिन्न में यह नहीं रहता है। अर्थात् तत्तद्घटात्मक अर्थपर्याय तत्तघट में हो रहता है, तत्तघट से अन्य में न रहने के कारण तत्तघट का स्व रूप होता है। और 'घट'नाम (शम्ब) रूप क्यञ्जन पर्याय तत्तवर्थपर्यायामक तत्तद्धट का पररूप है क्योंकि यह अर्थपर्यायास्मक तद्घट में तया अन्यत्र अर्थात् अर्थपर्यायात्मक घटान्तर में प्रवृत्त होने से वह पर साधारण होने के कारण पर रूप है । इन दो रूपों में मर्थपर्यायात्मक स्व रूप से घट का सत्त्व बताने के लिये प्रथमभंग का और व्यञ्जन पर्यायात्मक पर रूप से असत्व बताने के लिये द्वितीयभंग का प्रयोग होता है। यदि अभिन्नतया अर्थपर्याय और परमन