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[ शाहनवाता. स७ इलो- १३
जैसे देखिये-अवयवी को अषयब से अतिरिक्त मानने पर यह विकल्प उपस्थित होता है कि अपने प्रवयवों में प्रथयधी एकवेश से रहता है अथवा काप यानी समस्त रूप से रहता है। इन में प्रथम
समान्य माह हो सकता क्योंकि अब सवयक एवं रहने का तात्पर्य यह है कि अबषयी का एक देरा रहता है । अब यहाँ प्रश्न होगा की अश्मयों में जो यह अवयबो एकरेश रहता है, वह गया एकदेशेन = एकदेश से रहता है ? अथवा कासन्न - सामस्त्य से रहता है ? इसमें प्रथम पक्ष में यही प्रश्न होगा कि अपयवा-एकवेमा का एकवेश भी क्या एमावेश से रहेगा?या समस्त रूप से रहेगा? इस प्रकार एकवेश बर्तन में अमवस्था चलेगी। अथवा 'एकदेशेन समवेयाव ?' इस विकल्प को इस प्रकार लगाया जाए-अवमवी का सत्सवयवों में सतववयवात्मक एका वृप्ति माना जाममा सो पारमाश्रम होगा और यदि तत्तववयवों से भिन्न किसी प्रक्लप्त मवयष से तत्तदवयवों में प्रत्यको का बर्तन मामा जायगा तो सस सपलत पचयों में भी अवसवी का वर्सन मानता होगा. क्योंकि उस अक्लप्त अवयव में बिना उस अवयव से लाल अवयवों में अक्षयवी का वर्तन नहीं हो सकता । उन अपलप्त अवयवों में मो समयकी का वर्तन उन्हीं अषयों से मानने में मारमाश्रय एवं अन्य बलप्त अवयवों का अवमप्त उन अवयों के साथ सम्बन्ध न होने से उन अवयवों के द्वारा अवयवो का वर्तम मामना सम्भव न होने से उस अक्लप्त अवयवों में प्रथमवी के रहने के लिए अवयवान्तर की कल्पना करनी होगी । इसप्रकार अबमयों में एकवेया से अवयवी के वर्तन का पक्ष अनवस्था दोषयस्त है।
[ अवयवी का पूर्णतया अवपत्रों में वर्तन अनुपपन्न ] इसीप्रकार द्वितीयपक्ष भी मान्य नहीं हो सकता क्योंकि उस पक्ष में प्रत्येक अवयव में प्रवक्की पूर्णरूप से समवेत होने से अवयवयत्व से अवगधों में बहत्व को प्रसक्ति होगी। इसप्रकार एकदेश
और फारसम्म, किसी भी रूप से अवर्षों में भवयषी का पसंन सम्भव नहीं है । और बर्तन का उक्त दोनों प्रकार से अतिरिक्त कोई तीसरा प्रकार होता महीं मह पहले बताया जा चुका है। फलतः अबयवों में समवेत प्रथयों से भिन्न प्रतिरिक्त अवयवी की सिद्धि नहीं हो सकती। इसके अतिरिक्त दूसरे पक्ष में यह भी वोष है कि बसे वो अश्य में द्वित्वको पर्याप्त होने से बोनों प्रयों का ग्रहण न होने पर केवल एक प्रम के ग्रहण से द्वित्व का पहण नहीं होता उसीप्रकार यावषयवों में एक अवमत्री की पर्याप्त मानने पर यायत् अवषयों की अग्रह दशा में अवयवो का ग्रहण न हो सकेगा। यदि प्रत्येक में अवयवी की पर्याप्त मानी जायगी तो 'पट एक एक तन्तु में पर्याप्त हैमकार के व्यवहार को प्राप्ति होगी। इसके अतिरिक्त एकवोध यह भी है कि अप अवग्रवी अवयवों से अतिरिक्त एक निरंश नध्य होगा तो उसको अपेक्षा पृथतरदेश में उसका अवस्थान पृक्तिसल्लत न होगा। पयोंकि जो पदार्थ निरंचा और पत्तिमान जोता वह अपने आश्रम में व्याप्त होकर रहता है जैसे घटस्व परमाधि माप्ति और रूपस्पादि मुण, किन्सु घटादि अव्यवी द्वाप अपने आश्रय भूतलादि में व्याप्त हो कर नहीं रहता, प्रातः ससे मरंग एक स्प नहीं माना जा सकता। यदि घटादि को सवयवसमूलरूप ' माने तो उक्त घोष नहीं हो सकता क्योंकि सांपा यस में अपने प्राधय में व्याप्त हो कर प्रोस्थत होने का नियम नहीं है।
[संयुक्त अवयनसमूह ही अवयवी हैं ] यह भी मातथ्य है कि यदि अवयवों को भवयवसमूह रूप न मान कर अवयवों से सबंया भिन एक व्यरूप माना जामगा, तो बहतर प्रवयव और अल्पतर अवयषों से आरस्थ होनेवाले अबको के