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________________ २२८ (शास्त्रवात स्त. लो०४७-४८ यथैतत् प्रतिक्षिप्तं तथा योजयन्नाहमूलम-प्रतिक्षिप्तं च यझेदाभेदपक्षोऽन्य एव हि। भेदाभेदविकल्पाभ्यां हन्त ! जात्यन्तरात्मकः ॥ ४७ ॥ प्रतिक्षिप्तं चेदम् यद्-यस्मात , अन्य एच हिनिश्चितं विलक्षण एव भेदाभेदविकल्पाभ्यां प्रत्येकमेदागदाच्याम् , हाल तरागकोइतरेतरगर्भस्वात्मा भेदाभेदपक्षः । 'हन्त' इति परानवबोधनिबन्धनखेदव्यञ्जकम् ॥ ४७॥ ४७वीं कारिका में उक्त कथन कैसे निराकृत है उसकी योजना की गयी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है, केवल मेव किंवा अमेव के विकल्प द्वारा जिस पक्ष का निराकरण किया गया है, मेवामेव पक्ष उससे विजातीय-विलक्षण है। खेव की बात है कि विकल्प के उपस्थापकों ने इस स्पष्ट तथ्य को नहीं समझा ।। ४७ ।। यदि नामवं ततः किम् ? इत्याहमूलम्-जात्यन्तरात्मकं चैनं दोषास्ते समियुः कथम् ।। भेदेऽभेदे च येऽत्यन्तजातिभिन्ने व्यवस्थिताः ॥१८॥ जात्यन्तरात्मकं चैनं भेदाभेदविकल्पम् ते दोषाः कथं समियुः आगच्छेयुः येऽत्यन्तजातिभिन्ने मेदेऽभेदे च व्यवस्थिता लन्धनसराः । एकान्त भेद एव ह्ये कस्योभयरूपतानुपपत्तिदोषः, एकान्ताभेद एव चान्यतरस्थिति-निवृत्यनुपपत्तिः । भेदाभेदे तु न कोऽपि दोषावकाश इति । [भेदाभेद पक्ष में वैजात्य का निदर्शन ] ४८वीं कारिका में पूर्वोक्त का निष्कर्ष बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैवस्तु का भेदाभेदात्मक पक्ष, केवल भेद पक्ष और केवल अभेव पक्ष से विजातीय है। अत: केवल भेद अथवा केवल अभेव पक्ष में जो दोष सम्भावित है वे भेदाभेद पक्ष में नहीं हो सकते । अतः वष्य और पर्याय में भेदाभेव पक्ष में अभिमत भेव को स्वीकार करने पर एक वस्तु की उमयात्मकता की अतुपपसि नहीं हो सकती । इसी प्रकार भेदाभेद पक्ष में अभिमत प्रभेव स्वीकार करने पर द्रव्य-पर्याय में एक की निवृत्ति के साथ अन्य की स्थिति को भी अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि एक वस्तु को उमयात्मकता फी अनुपपत्ति एकान्तमेव पक्ष में ही सम्भव है और द्रव्य पर्याय में एक की निवृत्ति और अन्य की स्थिति की युगपत् अनुपपत्ति भी एकान्त पक्ष में ही सम्भव है । भेदाभेदात्मक अनेकान्त पक्ष में उक्त दोषों का कोई अवसर नहीं है। __ अत्रायं संप्रदाय:- प्रत्येकमुपढौकमानो दोषो न ढोकते जात्यन्तस्तापत्तौ । दृष्टा हि कैवल्यपरिहारेण तत्प्रयुक्तायाः परस्परानुवेधेन जात्यन्तरभावमापन्नस्य गुड-शुण्ठीद्रव्यस्य कफपित्तदोषकारिताया निवृत्तिः तदाहुः-[ वीतरागस्तोत्र ८/६]
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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