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________________ २२६ [स्वार्ता स्त.. श्लो.४३-४४ निराधार है क्योंकि अनेकान्त पक्ष में नय और प्रमाण के उपयोग से मेव व्याप्त अभेद और अमेव व्याप्त मेव की सिद्धि निर्वाध रूप से सम्पन्न होती है । [नय और प्रमाण से संशयादि का निरसन ] तात्पर्य यह है कि प्रत्येक नय के उपयोग से प्रत्येकरूप से और एक साथ वो नय के उपयोग से उभयरूप से तथा सप्तभङ्गी प्रमाण से सुनिश्चित सभी रूपों से वस्तु का निश्चय हो जाता है। अतः उभयत्रादि दोष की सम्भावना समाप्त हो जाती है। संशय मावि जो दुर्नय को वासना के कारण प्रतीत होता है उनका, नप और प्रमाण से होने वाले वस्तु के भेवा-भेवात्मक विशेष स्वरूप के निर्णय से, निरसन हो जाता है। अतः यह स्मरणीय है कि मिथ्यात्य दोष से यदि भिन्नाभिन्न रूप में किसी वस्तु का निश्चय नहीं हो पाता तो इतने मात्र से यह नहीं कहा RT 4 कि वस्तु मिन्नाभिन्नात्मक न होकर एक मात्र मेव अथवा अमेव का ही प्राधार होती है । यदि वस्तु के भेषामेवात्मक सहज स्वभाव का अवलोष मिथ्यात्वदोषवश एकान्तवादी को नहीं हो पाता तो इसमें वस्तु का कोई अपराध नहीं है, क्योंकि यह सर्वमान्य उक्ति है कि यदि अन्धा व्यक्ति स्थाणु (बड़े वृक्ष) को नहीं देख पाता, तो इसमें स्थाणु का कोई अपराध नहीं होता है ॥ ४२ ॥ यदनेनापाकृतं तदुपन्यस्यतिमूलम्--एतेनैतत्प्रतिक्षिप्तं यदुक्तं पूर्ववादिभिः । विहायानुभवं मोहाजातियुक्त्यनुसारिभिः॥४३॥ एतेन अनन्तरोदितेन एतत्वक्ष्यमाणम, प्रतिक्षिप्त-निराकृतम् , यत अनुभवम्= अविगानेन प्रवृत्तं शबलाध्यक्षम् मोहात्-कुतर्कवासनाजनितादज्ञानात् विहाय अप्रामाण्यसंशयादिविषयीकृत्य जातियुक्त्यनुसारिभिः असद्विकल्पमात्रकदाग्रहहिलैः, पूर्ववादिभिः देवयन्धुप्रमुखैः उक्तम् ॥ ४३ ॥ ४३वीं कारिका में उस वक्तव्य को संकेतित किया गया है जो उक्त कथन से निरस्त हो जाता है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-जात्यात्मक युक्ति का अनुसरण करने वाले असद्विकल्प मात्र के दुराग्रह से ग्रस्त देवबन्धु प्रादि पूर्ववावियों ने कुतकंमूलक संस्कार से जनित प्रज्ञानवश मेदामेवात्मक वस्तु के प्रत्यक्ष अनुभव को अप्रामाण्य संशय आवि से आक्रान्त बताकर जो कुछ कहा है उस सबका पूर्व कारिका में कथित बाप्त से निराकरण हो जाता है ।। ४३ ॥ तद्वचनमेवाह-- मूलम् - 'द्रव्य पर्याययोमैदे नैकस्योभयरूपता। अभेदेऽन्यतरस्थाननिवृसी चिन्त्यतां कथम् ॥ ४४ ॥ द्रव्य-पर्याययो देऽभ्युपगम्यमाने नैकस्य वस्तुन उभयरूपता, तयोर्भेदाभिधानात् , एवं चैकमुभयमित्यसिद्धम् । अभेदे पुनरभ्युपगम्यमाने कथमन्यतरस्थान-निवृत्ती-द्रव्यान्वयपर्यायविच्छेदौ १ इति चिन्त्यताम् , एकस्य निवृत्ति--स्थित्यनुपपत्तेः ॥ ४४ ॥
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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